ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 36
स॒प्त स्वसा॑रो अ॒भि मा॒तर॒: शिशुं॒ नवं॑ जज्ञा॒नं जेन्यं॑ विप॒श्चित॑म् । अ॒पां ग॑न्ध॒र्वं दि॒व्यं नृ॒चक्ष॑सं॒ सोमं॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य रा॒जसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । स्वसा॑रः । अ॒भि । मा॒तरः॑ । शिशु॑म् । नव॑म् । ज॒ज्ञा॒नम् । जेन्य॑म् । वि॒पः॒ऽचित॑म् । अ॒पाम् । ग॒न्ध॒र्वम् । दि॒व्यम् । नृ॒ऽचक्ष॑सम् । सोम॑म् । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । रा॒जसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त स्वसारो अभि मातर: शिशुं नवं जज्ञानं जेन्यं विपश्चितम् । अपां गन्धर्वं दिव्यं नृचक्षसं सोमं विश्वस्य भुवनस्य राजसे ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । स्वसारः । अभि । मातरः । शिशुम् । नवम् । जज्ञानम् । जेन्यम् । विपःऽचितम् । अपाम् । गन्धर्वम् । दिव्यम् । नृऽचक्षसम् । सोमम् । विश्वस्य । भुवनस्य । राजसे ॥ ९.८६.३६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 36
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सप्त, स्वसारः) ज्ञानेन्द्रियाणां सप्तच्छिद्रैः गामिन्य इन्द्रियाणां सप्तवृत्तयः (अभि, मातरः) याः ज्ञानयोग्यपदार्थं प्रमाणितं कुर्वन्ति ताः (शिशुं) सर्वोपास्यपरमात्मानं (नवं) नित्यनूतनं पुनः किम्भूतं (जज्ञानं) स्फुटं किञ्च (जेन्यं) सर्वजेतारं पुनः (विपश्चितं) सर्वोपरि विज्ञानिनमेवम्भूतं तं विषयं कुर्वन्ति। अपि च परमात्मा (अपां) जलानाम् अपि च (गन्धर्वं) पृथिव्या धारणकर्ता अस्ति। (दिव्यं) प्रकाशमानः अपि च (नृचक्षसं) सर्वान्तर्याम्यस्ति। (सोमं) सर्वोत्पादकश्चास्ति। तं (विश्वस्य, भुवनस्य, राजसे) अखिलभुवनानां ज्ञानाय विद्वांस उपसेवन्ते ॥३६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सप्त स्वसारः) ज्ञानेन्द्रियों के सप्त छिद्रों से गति करनेवाली इन्द्रियों की ७ वृत्तियें (अभिमातरः) जो ज्ञानयोग्य पदार्थ को प्रमाणित करती हैं, वे (शिशुं) सर्वोपास्य परमात्मा को (नवं) जो नित्य नूतन है (जज्ञानं) और स्फुट है (जेन्यं) सबका जेता (विपश्चितं) और सबसे बड़ा विज्ञानी है, उसको विषय करती हैं। जो परमात्मा (अपां) जलों का (गन्धर्वं) और पृथिवी का धारण करनेवाला है, (दिव्यं) दिव्य है, (नृचक्षसं) सर्वान्तर्य्यामी है, (सोमं) सर्वोत्पादक है, उसकी (विश्वस्य भुवनस्य राजसे) सम्पूर्ण भुवनों के ज्ञान के लिये विद्वान् लोग उपासना करते हैं ॥३६॥
भावार्थ
परमात्मा का ध्यान इसलिये किया जाता है कि परमात्मा अपहतपाप्मादि गुणों को देकर उपासक को भी दिव्य दृष्टि दे, ताकि उपासक लोक-लोकान्तरों के ज्ञान को उपलब्ध कर सकें। इसी अभिप्राय से योग में लिखा है कि ‘भुवनज्ञानं सूर्य्ये संयमात्’ परमात्मा में चित्तवृत्ति का निरोध करने से लोक-लोकान्तरों का ज्ञान होता है ॥३६॥
विषय
सेनापति को सेनाओं के तुल्य विद्याशास्ता को जिज्ञासु शिष्यों की प्राप्ति।
भावार्थ
(स्वसारः मातरः नवं जज्ञानं शिशुम्) बहनें और माताएं जैसे नवजात बालक को प्राप्त करती हैं उसी प्रकार (सप्त) चलने वाली, वा गणना में सात (स्वसारः) ऐश्वर्य को लक्ष्य कर शत्रु पर आक्रमण करने वाली, (मातरः) शत्रु का हिंसन करने वाली वा गर्जना तर्जना करने वाली सेनाएं (जेन्यं) विजिगीषु (सोमं) शासक को प्राप्त करती हैं, उसी प्रकार (स्वसारः) स्वयं आने वाले (मातरः) विद्या का अभ्यास करने वाले जन (विपश्चितं) विद्वान् ज्ञानी (अपां गन्धर्वं) प्रजाओं के बीच ज्ञानवाणी को धारण करने वाले, (दिव्यं) तेजस्वी (नृ-चक्षसम्) मनुष्यों को देखने और सन्मार्ग का उपदेश करने में समर्थ (सोमम्) उत्तम शासक पुरुष को (विश्वस्य भुवनस्य राजसे) समस्त संसार को प्रकाशित करने के लिये सूर्य के तुल्य ही (अभि) प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
'तवं जज्ञानं जेन्यं विपश्चितम् '
पदार्थ
(सप्त) = सात 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' = दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख रूप सप्तर्षि (स्व-सारः) = आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले होते हुए, (मातरः) = ज्ञान का निर्माण करनेवाले होते हैं और (शिशुं) = बुद्धि को तीव्र करनेवाले (सोमम्) = सोम को (अभि) [गच्छन्ति] = प्राप्त होते हैं । वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों को प्रभु की उपासना व ज्ञान प्राप्ति में लगाना ही सोमरक्षण का प्रमुख साधन है । उस सोम को ये सप्तर्षि प्राप्त होते हैं, जो कि (नवम्) = स्तुत्य है, (जज्ञानम्) = शक्तियों के प्रादुर्भाव को करनेवाला है (जेन्यम्) = विजयशील है, (विपश्चितम्) = ज्ञानी है, हमारे ज्ञान को बढ़ानेवाला है । जो सोम (अपां गन्धर्वम्) = कर्मों की प्रतिपादक ज्ञानवाणियों को धारण करनेवाला है [अपस् = कर्म], (दिव्यम्) = हमें दिव्यवृत्ति का बनानेवाला है, (नृचक्षसम्) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाला है। इस सोम को (विश्वस्य भुवनस्य) = सम्पूर्ण भुवन की (राजसे) = दीप्ति के लिये प्राप्त करते हैं। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम सारे शरीर को दीप्त करनेवाला होता है। शरीर को तेजस्विता से, मन को निर्मलता से तथा बुद्धि को तीव्रता से यह सोम उत्कृष्ट बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- जब शरीरस्थ इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में लगेंगी और प्रभु उपासन में प्रवृत्त होंगी तभी सोम का रक्षण होगा। रक्षित सोम सम्पूर्ण शरीर को दीप्त बनायेगा ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Seven sisterly perceptive, conceptive and discriminative organs of sense and mind jointly confirm the presence of Soma, all pervasive, ever new, informing, victorious, universally wise, sustainer of waters and earth, heavenly, and constant watchful guardian of humanity. They perceive you, Soma, as you pervade and illuminate all regions of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचे ध्यान यासाठी करावे की त्याने अपहत पाप्म इत्यादी गुण प्रदान करून उपासकाला ही दिव्य दृष्टी द्यावी. त्यामुळे उपासक लोकलोकांतराचे ज्ञान उपलब्ध करू शकेल. याच अभिप्रायाने योगात लिहिले आहे की ‘भुवनज्ञानं सूर्यो संयमात’ परमेश्वरात चित्तवृत्तीचा निरोध करण्याने लोकलोकांतराचे ज्ञान होते. ॥३६॥
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