ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 40
उन्मध्व॑ ऊ॒र्मिर्व॒नना॑ अतिष्ठिपद॒पो वसा॑नो महि॒षो वि गा॑हते । राजा॑ प॒वित्र॑रथो॒ वाज॒मारु॑हत्स॒हस्र॑भृष्टिर्जयति॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । मध्वः॑ । ऊ॒र्मिः । व॒ननाः॑ । अ॒ति॒स्थि॒प॒त् । अ॒पः । वसा॑नः । म॒हि॒षः । वि । गा॒ह॒ते॒ । राजा॑ । प॒वित्र॑ऽरथः । वाज॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒त् । स॒हस्र॑ऽभृष्टिः । ज॒य॒ति॒ । श्रवः॑ । बृ॒हत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उन्मध्व ऊर्मिर्वनना अतिष्ठिपदपो वसानो महिषो वि गाहते । राजा पवित्ररथो वाजमारुहत्सहस्रभृष्टिर्जयति श्रवो बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । मध्वः । ऊर्मिः । वननाः । अतिस्थिपत् । अपः । वसानः । महिषः । वि । गाहते । राजा । पवित्रऽरथः । वाजम् । आ । अरुहत् । सहस्रऽभृष्टिः । जयति । श्रवः । बृहत् ॥ ९.८६.४०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 40
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मध्वः) मधुरां (ऊर्मिः, वननाः) तरङ्गवतीं वेदवाणीं (उत्, अतिष्ठिपत्) त्वमाश्रयसि। तथा (राजा) त्वं सर्वप्रकाशकः (पवित्ररथः) पवित्रगतिमाँश्चासि। तथा (वाजम्, आ, अरुहत्) ऐश्वर्य्यशक्तिमाश्रयसि। अपि च (सहस्रभृष्टिः) अनन्तशक्तिभिरस्य संसारस्य पालनं करोषि। तथा (बृहत्, श्रवः) महाशक्तिमानसि। अपरञ्च (जयति) सर्वोत्कृष्टत्वेन वर्तसे ! उक्तगुणसम्पन्नस्त्वां (अपः, वसानः) कर्मयोगी (महिषः) महापुरुषः (वि, गाहते) साक्षात्करोति ॥४०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मध्वः) मीठी (ऊर्मिर्वननाः) लहरोंवाली वेदवाणी (उदतिष्ठिपत्) तुम आश्रय किये हो तथा (राजा) तुम सबको प्रकाश देनेवाले हो और (पवित्ररथः) आप पवित्रगतिवाले हो तथा (वाजमारुहत्) ऐश्वर्यरूपी शक्ति को आश्रय किये हुए हो और (सहस्रभृष्टिः) अनन्तशक्तियों से इस संसार को पालन करनेवाले हो तथा (बृहच्छ्रवः) बड़े यशवाले हो और (जयति) सर्वोत्कृष्टता से वर्तमान हो। उक्तगुणसम्पन्न आपको (अपो वसानः) कर्म्मयोगी (महिषः) महापुरुष (विगाहते) साक्षात्कार करता है ॥४०॥
भावार्थ
महिष शब्द के अर्थ यहाँ महापुरुष के हैं। “महिष इति महन्नामसु पठितम्।” नि. अ.।३। खं. १३ ॥ महिष यह निरुक्त में महत्त्व का वाचक है। महापुरुष यहाँ कर्मयोगी और ज्ञानयोगी को माना है। उक्त पुरुषों में महत्त्व परमात्मा के सद्गुणों के धारण करने से आता है, इसीलिये इनको महापुरुष कहा है ॥४०॥
विषय
उपदेष्टा के कर्त्तव्य। गुरु-शिष्य के परस्पर कर्त्तव्य।
भावार्थ
(मध्वः ऊर्मिः वननाः उत् अतिष्ठिपत्) जल की तरंग जिस प्रकार उसे प्राप्त करने वाले काष्ठ आदि को ऊपर उठा लेती है, उसी प्रकार (मध्वः ऊर्मिः) ज्ञान रूप मधु का उत्तम उपदेष्टा पुरुष भी (वननाः) ज्ञान के याचक जनों को (उत् अतिष्ठिपत्) ऊंचे उठाता है। वह (अपः वसानः महिषः) जलों के धारण करने वाले, बहुत जल देने वाले मेघ के तुल्य स्वयं भी (अपः वसानः) प्राप्त शिष्यजनों को वस्त्रवत् आच्छादित करता हुआ (महिषः) बहुत ज्ञान देने वाला, महान् होकर (वि गाहते) विशेषरूप से वा विविध देशों में विचरता है। वह (राजा) तेजस्वी सूर्यवत् (पवित्र-रथः) पवित्र आत्मा और पवित्र पावन उपदेश वाला होकर (वाजम् आरुहत्) संग्राम को महारथी के तुल्य (वाजम्) ज्ञान, ऐश्वर्य और आदर पद को प्राप्त करता है। वह (सहस्र-भृष्टिः) सहस्रों को एक ही बार में भून देने वाले सेनापति के तुल्य स्वयं भी (सहस्र सृष्टिः) सहस्रों तेजों को धारण करने और सहस्रों को भरण पोषण देने मैं समर्थ होकर (बृहत् श्रवः) बड़ा भारी यश, प्रसिद्धि वा श्रवण योग्य ज्ञान को (जयति) प्राप्त करता है। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
'ज्ञानी कर्मनिष्ठ उपासक' बनानेवाला सोम
पदार्थ
(मध्वः ऊर्मिः) = माधुर्य की तरंगरूप यह सोम (वनना:) = सेवनीय ज्ञान की वाणियों को (उद् अतिष्ठिपत्) = हमारे में स्थापित करता है। हमें तीव्र बुद्धि बनाकर ज्ञान को प्राप्त कराता है। (अपः वसानः) = कर्मों को धारण करता हुआ हमें क्रियाशील बनाता हुआ (महिषः) = यह उपासनावाला सोम (विगाहते) = शरीर कलश में प्रवेश करता है। सोम रक्षित हुआ हुआ हमें प्रभु की ओर झुकाता है । (राजा) = हमारे जीवनों को व्यवस्थित व दीप्त करनेवाला [regulate दीसौ] (पवित्रस्थ:) = शरीरस्थ को पवित्र बनानेवाला सोम (वाजं आरुहत्) = संग्राम में आरूढ़ होता है। शरीर में प्रविष्ट होकर यह रोगकृमियों व वासनाओं से संग्राम को प्रारम्भ करता है । वहाँ (सहस्त्रभृष्टिः) = शतसः मनुष्यों को भून डालनेवाला यह सोम (बृहत् श्रवः) = महान् यज्ञ का (जयति) = विजय करता है । सब शत्रुओं को शीर्ण करके विजयी होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें 'ज्ञानी कर्मनिष्ठ उपासक' बनाता है। शत्रुओं का शीर्ण करके हमारे जीवन को यशस्वी करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma of honey sweets of divinity helps desires to be stabilised. The great ardent one wearing the cloak of dynamics of creativity sojourns over spaces. Refulgent ruler riding the purity chariot advances to victory in elemental evolution and, wielding a thousand arms of blazing light, wins high and imperishable renown and adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
महिष शब्दाचा अर्थ येथे महापुरुष असा आहे. ‘महिष इति महन्नामसु पठितम् - निरुक्त ३.१३ महिष निरुक्तमध्ये महत्त्वाचा वाचक आहे. कर्मयोगी व ज्ञानयोग्याला येथे महापुरुष मानलेले आहे. परमेश्वराचे गुण धारण करण्याने त्या पुरुषांना महत्त्व प्राप्त होते. त्यासाठी त्यांना महापुरुष म्हटलेले आहे. ॥४०॥
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