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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 42
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    सो अग्रे॒ अह्नां॒ हरि॑र्हर्य॒तो मद॒: प्र चेत॑सा चेतयत॒त अनु॒ द्युभि॑: । द्वा जना॑ या॒तय॑न्न॒न्तरी॑यते॒ नरा॑ च॒ शंसं॒ दैव्यं॑ च ध॒र्तरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । अग्रे॑ । अह्ना॑म् । हरिः॑ । ह॒र्य॒तः । मदः॑ । प्र । चेत॑सा । चे॒त॒य॒ते॒ । अनु॑ । द्युऽभिः॑ । द्वा । जना॑ । या॒तय॑न् । अ॒न्तः । ई॒य॒ते॒ । नरा॒ऽशंस॑म् । च॒ । दैव्य॑म् । च॒ । ध॒र्तरि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो अग्रे अह्नां हरिर्हर्यतो मद: प्र चेतसा चेतयतत अनु द्युभि: । द्वा जना यातयन्नन्तरीयते नरा च शंसं दैव्यं च धर्तरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । अग्रे । अह्नाम् । हरिः । हर्यतः । मदः । प्र । चेतसा । चेतयते । अनु । द्युऽभिः । द्वा । जना । यातयन् । अन्तः । ईयते । नराऽशंसम् । च । दैव्यम् । च । धर्तरि ॥ ९.८६.४२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 42
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः, सोमः) उक्तगुणसम्पन्नः परमात्मा (अह्नां, अग्रे) अस्मादहर्दिवात्प्राक् (हर्य्यतः, हरिः) हारकशक्तीनां हरणकारकः। (मदः) आनन्दस्वरूपः (अनु, द्युभिः) द्युभ्वादिलोकानां (चेतसा) निजचैतन्यरूपशक्त्या (प्र, चेतयते) गतिशीलकारकश्चासीत्। (द्वा, जना) कर्मयोगिनां ज्ञानयोगिनाञ्च (यातयन्) वेदविधिना प्रेरणां कृत्वा (अन्तः, ईयते) अस्य द्युलोकस्यापि च। पृथिवीलोकस्य मध्ये गतिशीलोऽस्ति। (च) पुनः (नरा) उक्तपुरुषद्वयं (शंसं) प्रशंसनीयं (दैव्यं) दिव्यं च (धर्तरि) धारणविषये सर्वोपरि निर्ममे ॥४२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः सोमः) उक्त गुणसम्पन्न परमात्मा (अह्नामग्रे) इस दिन-रात से पहले (हर्य्यतो हरिः) हरण करनेवाली शक्तियों का हरण करनेवाला था। (मदः) आनन्दस्वरूप था और (अनु द्युभिः) द्युभ्वादि लोकों को  (चेतसा) अपनी चैतन्यरूप शक्ति से (प्रचेतयते) गतिशील करनेवाला था (द्वा जना) कर्मयोगी और ज्ञानयोगी दोनों पुरुषों को (यातयन्) वेदविधि से प्रेरणा करके (अन्तरीयते) इस द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में गतिशील है (च) और (नरा) उक्त दोनों पुरुषों को (शंसं) प्रशंसनीय (दैव्यं) दिव्य (च) और (धर्तरि) धारणा विषय में सर्वोपरि बनाता है ॥४२॥

    भावार्थ

    वह परमात्मा इस प्रकृति की नानाविध शक्तियों को संयोजन करता हुआ कर्मयोगी और ज्ञानयोगी दोनों प्रकार के पुरुषों को प्रशंसनीय बनाता है ॥४२॥

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    विषय

    शास्य-शासकवत् सम्बन्ध।

    भावार्थ

    (सः) वह (अग्रे अह्नाम्) दिनों के पूर्व भाग में, प्रातः वा जीवन के पूर्व भाग, ब्रह्मचर्य काल में, (हरिः) अज्ञान दुःखों को हरने वाला (हर्यतः) सब को प्रिय लगने वाला, (मदः) आनन्द और सर्वतृप्त होकर (चेतसा) ज्ञान और उत्तम चित्त से (द्युभिः) ज्ञान प्रकाशों से सूर्य के तुल्य, सब मनुष्यों को (प्र चेतयते) उत्कृष्ट मार्ग पर जाने के लिये चेताता है, और (अनु चेतयते) बराबर चेताता रहता है। वह (द्वा जना अन्तः) छोटे बड़े, गरीब अमीर स्वामी सेवक, आत्मा प्रभु, शास्य शासक, और उत्तम निकृष्ट एवं स्त्री पुरुष सब के भीतर, सब के बीच में रहकर उनको (यातयन्) सब प्रकार से यत्न करवाता हुआ (ईयते) जाना जाता है। वह (धर्त्तरि) धारण करने वाले पुरुष में (नराशंसं च) उत्तम मनुष्यों से प्रशंसनीय (दैव्यं च) विद्वानों के योग्य उनको प्राप्त करने योग्य ज्ञान का भी उपदेश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    चेतसा, द्युभिः

    पदार्थ

    (सः) = वह (हर्यतः) = चाहने योग्य कमनीय (हरिः) = दुःखों का (हर्ता मदः) = उल्लास जनक सोम (अह्नां अग्रे) = दिनों के अग्रभाग में (चेतसा) = चिन्तन के द्वारा तथा (द्युभिः) = ज्ञान दीप्तियों के द्वारा (अनुप्रचेतयते) = अनुकूल प्रकृष्ट चेतना को उत्पन्न करता है । सोमरक्षक पुरुष प्रातः ध्यान व स्वाध्याय की वृत्तिवाला होता है इन ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा यह सोम हमारे जीवन में प्रकृष्ट चेतन व ज्ञान को प्राप्त कराता है । (धर्तरि) = धारण करनेवाले के (अन्तः) = अन्दर यह सोम (नराशंसं) = मनुष्यों से प्रशंसनीय (च) = और (दैव्यम्) = दिव्यगुणों के जनक उभयविध (द्वा जना) = दोनों विकास के कारणभूत ऐश्वर्यों को (यातयन्) = प्राप्त कराता हुआ (ईयते) = गति करता है। 'नराशंस ऐश्वर्य' वह है जो सुपथ से कमाया जाकर उत्तम गृह के निर्माण का साधन बनता है। 'दैव्य ऐश्वर्य' ज्ञान है जो सब सद्गुणों के विकास का साधन होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम चिन्तन व स्वाध्याय की वृत्ति को पैदा करता है । सोमरक्षक पुरुष धन को सदा सुपथ से कमाता है और ज्ञान के द्वारा सद्गुणों का अर्जन करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Soma, dispeller of darkness in advance of the day, blissful and glorious Spirit, inspiring and exalting, illuminates with intelligence and enlightens with consciousness day by day. It moves within, rousing both men and women, high and low, general humanity and leading lights, and inspires all to acquire, intensify and maintain higher and higher intelligence and awareness both admirable and divine day by day.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर या प्रकृतीच्या नाना प्रकारच्या शक्तींचे संयोजन करून कर्मयोगी व ज्ञानयोगी दोन्ही प्रकारच्या पुरुषांना प्रशंसनीय बनवितो. ॥४२॥

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