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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 48
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    पव॑स्व सोम क्रतु॒विन्न॑ उ॒क्थ्योऽव्यो॒ वारे॒ परि॑ धाव॒ मधु॑ प्रि॒यम् । ज॒हि विश्वा॑न्र॒क्षस॑ इन्दो अ॒त्रिणो॑ बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीरा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पव॑स्व । स्म् । क्र॒तु॒ऽवित् । नः॒ । उ॒क्थ्यः॑ । अव्यः॑ । वारे॑ । परि॑ । धा॒व॒ । मधु॑ । प्रि॒यम् । ज॒हि । विश्वा॑न् । र॒क्षसः॑ । इ॒न्दो॒ इति॑ । अ॒त्रिणः॑ । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवस्व सोम क्रतुविन्न उक्थ्योऽव्यो वारे परि धाव मधु प्रियम् । जहि विश्वान्रक्षस इन्दो अत्रिणो बृहद्वदेम विदथे सुवीरा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पवस्व । स्म् । क्रतुऽवित् । नः । उक्थ्यः । अव्यः । वारे । परि । धाव । मधु । प्रियम् । जहि । विश्वान् । रक्षसः । इन्दो इति । अत्रिणः । बृहत् । वदेम । विदथे । सुऽवीराः ॥ ९.८६.४८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 48
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमात्मन् ! त्वं (क्रतुवित्) कर्म्मणां वेत्तासि। (नः) अस्मान् (पवस्व) पवित्रय। (उक्थ्यः) त्वं सर्वासामुपासनानामाधारोऽसि। अपि च (अव्यः) रक्षकः। तथा (वारे) वरणीये पुरुषे (प्रियं, मधु) प्रियानन्दं (परिधाव) परिदेहि। (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! त्वं (अत्रिणः, विश्वान्, रक्षसः) सर्वाणि हिंसकरक्षांसि (जहि) हिंसय। (सुवीराः) सुसन्ततिमन्तो वयं (विदथे) महत्सु यज्ञेषु (बृहत्, वदेम) भवतः स्तुतिं कुर्य्याम ॥४८॥ इति षडशीतितमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे परमात्मन् ! आप (क्रतुवित्) कर्मों के वेत्ता हैं। (नः) हमको आप (पवस्व) पवित्र करें। (उक्थ्यः) आप सर्वोपासनाओं के आधार हैं और (अव्यः) रक्षक हैं तथा (वारे) वरणीय पुरुष में (प्रियं मधु) प्यारे आनन्द को (परिधाव) दें। (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप ! (अत्रिणो विश्वान् रक्षसः) सम्पूर्ण हिंसक राक्षसों को आप (जहि) मारें (सुवीराः) सुन्दर सन्तानवाले हम (विदथे) बड़े बड़े यज्ञों में (बृहद्वदेम) आपकी अत्यन्त स्तुति करें ॥४८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में राक्षसों से तात्पर्य्य यज्ञविघ्नकारी दुष्टाचारियों से है, क्योंकि “रक्षन्ति येभ्यस्ते राक्षसाः” जिनसे रक्षा की जाय, उनका नाम यहाँ राक्षस है। तात्पर्य्य यह है कि सब विघ्नों से बचाकर परमात्मा हमारे यज्ञों की पूर्ति करे ॥४८॥ यह ८६ वाँ सूक्त और २१ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    ईश्वर स्तुति, ज्ञान-प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (सोम) जगत्प्रेरक विधातः ! प्रभो ! (नः उक्थ्यः) तू हमारा स्तुति करने योग्य उपास्य, इष्ट देव है। तू (क्रतु-वित्) कर्मों और ज्ञानों का जानने और जनाने हारा होकर (नः पवस्व) हमें प्राप्त हो, हमें पवित्र कर। तू (अव्यः वारे) हमारे आत्मा के वरणीय परमरूप में (प्रियम् मधु) प्रिय, प्रीतिकारक मधुर, सुखजनक ज्ञान (परि धाव) प्रदान कर। हे (इन्दो) तेजोमय ! दुष्टों के सन्तापजनक ! तू (विश्वान् रक्षसः) समस्त दुष्ट जनों और (अत्रिणः) दूसरों के अधिकार को खा जाने वाले जनों को भी (जहि) विनाश कर। हम (विदथे) यज्ञ, संग्राम और ज्ञान सत्संगादि में (सुवीराः) उत्तम वीरों, पुत्रों से युक्त होकर (ते बृहद् वदेम) हम तेरा बड़ा गुण गान करें। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    क्रतुवित् उक्थ्य

    पदार्थ

    हे (सोम) = वीर्यशक्ते! (पवस्व) = तू हमें प्राप्त हो । (नः) = हमारे लिये (क्रतुवित्) = ' शक्ति यज्ञ व प्रज्ञान' को प्राप्त करानेवाला तू (उक्थ्यः) = स्तुत्य है । (अव्यः) = अतिशयेन रक्षणीय या रक्षकों में उत्तम तू (वारे) = द्वेष आदि का निवारण करनेवाले पुरुष में (प्रियं मधु) = प्रिय माधुर्य को (परिधाव) = समन्तात् प्राप्त करा । इस सोम रक्षक पुरुष के सब व्यवहारों को मधुर बना । हे (इन्दो) = सोम ! (विश्वान्) = सब अथवा हमारे न चाहते हुए भी अन्दर घुस आनेवाले [विशन्ति] (अत्रिणः) = हमें खा जानेवाले (रक्षसः) = राक्षसी भावों को (जहि) = विनष्ट कर। हम (सुवीराः) = उत्तम वीर बनते हुए (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (बृहद् वदेम) = खूब ही आपका साधन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमारे जीवन को ऋतुमय- मधुर व राक्षसी भावों से शून्य बनाये। हम वीर बनकर ज्ञानयज्ञ में प्रभु की चर्चा करनेवाले हों । प्रभु चर्चा की कामनावाला 'उशनाः' अगले सूक्त का ऋषि है-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, Spirit of life and peace, Indu, light of the world, all knowing master of yajnic action, radiate and flow for us, lord adorable and all protective. Distil the dearest honey sweets of life for the chosen soul and bless. Destroy all ogres and demons who devour human wealth. Blest with heroic courage and noble progeny, we celebrate and glorify you with abundant praise in the yajnic congregation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात राक्षसांचे तात्पर्य यज्ञविघ्नकारी दुष्टाचारीबद्दल आहे कारण (रक्षन्ति येभ्यस्ते राक्षस:) ज्यांच्यापासून रक्षण केले जाते त्यांचे नाव राक्षस आहे. तात्पर्य हे आहे की सर्व विघ्नांपासून बचाव करून परमात्म्याने आमच्या यज्ञांची पूर्तता करावी. ॥४८॥

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