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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 47
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    प्र ते॒ धारा॒ अत्यण्वा॑नि मे॒ष्य॑: पुना॒नस्य॑ सं॒यतो॑ यन्ति॒ रंह॑यः । यद्गोभि॑रिन्दो च॒म्वो॑: सम॒ज्यस॒ आ सु॑वा॒नः सो॑म क॒लशे॑षु सीदसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । धाराः॑ । अति॑ । अण्वा॑नि । मे॒ष्यः॑ । पु॒ना॒नस्य॑ । स॒म्ऽयतः॑ । य॒न्ति॒ । रंह॑यः । यत् । गोऽभिः॑ । इ॒न्दो॒ इति॑ । च॒म्वोः॑ । स॒म्ऽअ॒ज्यसे॑ । आ । सु॒वा॒नः । सो॒म॒ । क॒लशे॑षु । सी॒द॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते धारा अत्यण्वानि मेष्य: पुनानस्य संयतो यन्ति रंहयः । यद्गोभिरिन्दो चम्वो: समज्यस आ सुवानः सोम कलशेषु सीदसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । धाराः । अति । अण्वानि । मेष्यः । पुनानस्य । सम्ऽयतः । यन्ति । रंहयः । यत् । गोऽभिः । इन्दो इति । चम्वोः । सम्ऽअज्यसे । आ । सुवानः । सोम । कलशेषु । सीदसि ॥ ९.८६.४७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 47
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (यत्) यदा त्वं (गोभिः) ज्ञानिभिः (चम्वोः) सेनासम्बन्धे (समज्यसे) उपसेव्यसे तदा त्वं (आ, सुवानः) सर्वव्यापकः (सोम) हे शान्तस्वभावपरमात्मन् ! (कलशेषु) उपासकानामन्तःकरणेषु (सीदसि) विराजसे अपि च (ते धाराः) तव प्रेमधाराः (अति, अण्वानि) याः सूक्ष्माः सन्ति। (संयतः) संयमिनं पुरुषं (पुनानस्य) यः सदुपदेशैः सर्वपावकोऽस्ति। तं (यन्ति) प्राप्नुवन्ति। याः प्रेमधाराः (रंहयः) गतिशीलास्सन्ति ॥४७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! (यद्) जब आप (गोभिः) ज्ञानी पुरुषों द्वारा (चम्वोः) आध्यात्मिक वृत्तियों की सेना के सम्बन्ध में (समज्यसे) उपासना किये जाते हो, तब आप (आसुवानः) सर्वव्यापक (सोम) हे शान्तिस्वरूप परमात्मन् ! (कलशेषु) उपासकों के अन्तःकरणों में (सीदसि) विराजमान होते हो और (ते धाराः) तुम्हारी प्रेम की धारायें (अत्यण्वानि) जो सूक्ष्म हैं, (संयतः) संयमी पुरुष को (पुनानस्य) जो सदुपदेश द्वारा सबको पवित्र करनेवाला है उसको (यन्ति) प्राप्त होती हैं, जो प्रेमधारायें (रंहयः) गतिशील हैं ॥४७॥

    भावार्थ

    जब उपासक बाह्यवृत्तियों का निरोध करके अन्तर्मुख होकर परमात्मा का ध्यान करता है, तो वह परमात्मा के साक्षात्कार को अवश्यमेव प्राप्त होता है ॥४७॥

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    विषय

    ईश्वर की महती शक्तियां।

    भावार्थ

    हे आत्मन् ! प्रभो ! (पुनानस्य) सर्वव्यापक, जगत् के संचालक (ते) तेरी (धाराः) विश्व को धारण करने वाली शक्तियां (रंहयः) अति वेग वाली होकर भी (संयतः) अच्छी प्रकार नियमों में बद्ध हैं, वे (मेष्यः) मेषी अर्थात् पर-शक्ति से प्रेरित होने वाली वा ब्रह्मवीज से निषिक्त, ब्रह्म की शक्ति से वीर्यवती इस प्रकृति के (अण्वानि) सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणुओं को भी (प्र यन्ति) खूब प्राप्त होती हैं। हे (इन्दो) तेजस्विन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (चम्वोः) आकाश और भूमि दोनों के बीच, (यत्) जो (नाभिः) भूमियों, किरणों और सूर्यो द्वारा (सम् अज्यसे) अच्छी प्रकार प्रकाशित हो रहा है। वह तू (सुवानः) उपासित होता हुआ, हे (सोम) सब जगत् के शासक ! सर्वोत्पादक प्रभो ! तू (कलशेषु आसीदसि) समस्त भुवनों में कण २ में चेतना के तुल्य विराजता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    ब्रह्मशक्ति के सूक्ष्मतत्त्वों का ज्ञान

    पदार्थ

    हे सोम ! (पुनानस्य) = पवित्र किये जाते हुए (ते) = तेरे (संयतः) = सम्यक् शरीर में गति करते हुए [संयत किये गये] (ते) = तेरी (रंहय:) = वेगवती धारण [धारण शक्तियाँ] धारायें (मेष्यः) = सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाली ब्रह्मशक्ति के (अण्वानि) = सूक्ष्म तत्त्वों को (प्र अतियन्ति) = खूब प्राप्त होती हैं । अर्थात् सोमरक्षण से उत्पन्न तीव्र बुद्धि के द्वारा संसार संचालिका ब्रह्मशक्ति के तत्त्वों को हम समझने लगते हैं। हे (इन्दो) = सोम ! (यद्) = जब (गोभिः) = इन ज्ञानवाणियों के द्वारा (चम्वोः) = द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में तू (समज्यसे) = अलंकृत किया जाता है, अर्थात् स्वाध्याय के द्वारा वासनाओं से दूर रहकर तेरा रक्षण होता है और तू मस्तिष्क व शरीर को ही अलंकृत करनेवाला होता है, तो (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ (सोम) = हे सोम ! तू कलशेषु इन शरीर कलशों में (आसीदसि) = समन्तात् - अंग-प्रत्यंग में स्थित होता है। उनमें स्थित होकर तू उनका धारण करता है, उन्हें शक्तिशाली बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- पवित्र सोम की शरीर में सुरक्षित धारायें शरीर को स्वस्थ बनाती हैं और मस्तिष्क को सूक्ष्म तत्त्वों के ज्ञान से शोभित करती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indu, Spirit of life and light of the world, Soma, pure and purifying, the streams of your creative power, extremely subtle, virile and generous, move united at the speed of thought when, between heaven and earth, you vibrate and radiate, one with the rays of the sun, and, inspiring, worshipped and consecrated within, you abide in the heart core of the realised souls.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा उपासक बाह्यवृत्तींचा निरोध करून अंतर्मुख होऊन परमेश्वराचे ध्यान करतो तेव्हा तो परमेश्वराचा साक्षात्कार अवश्य करतो. ॥४७॥

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