अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
तस्मा॒द्वै ब्रा॑ह्म॒णानां॒ गौर्दु॑रा॒धर्षा॑ विजान॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त् । वै । ब्रा॒ह्म॒णाना॑म् । गौ: । दु॒:ऽआ॒धर्षा॑ । वि॒ऽजा॒न॒ता ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्वै ब्राह्मणानां गौर्दुराधर्षा विजानता ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात् । वै । ब्राह्मणानाम् । गौ: । दु:ऽआधर्षा । विऽजानता ॥७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 17
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
(तस्मात्) इसलिये (वै) निश्चय से (विजानता) इस रहस्य को विशेष रूप से जानने वाले पुरुष द्वारा (ब्राह्मणानां गौः) ब्राह्मणों की ‘गौ’ (दुराधर्षा) कठिनता से घर्षण की जाती है। अर्थात् उपरोक्त बात को जानकर मनुष्य ब्राह्मण की गौ को भूल कर भी पीड़ा नहीं देता।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवताच पूर्वोक्ते। १२ विराड् विषमा गायत्री, १३ आसुरी अनुष्टुप्, १४, २६ साम्नी उष्णिक, १५ गायत्री, १६, १७, १९, २० प्राजापत्यानुष्टुप्, १८ याजुषी जगती, २१, २५ साम्नी अनुष्टुप, २२ साम्नी बृहती, २३ याजुषीत्रिष्टुप्, २४ आसुरीगायत्री, २७ आर्ची उष्णिक्। षोडशर्चं सूक्तम्॥
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