अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - चतुष्पदा स्वराडुष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
स्व॒धया॒ परि॑हिता श्र॒द्धया॒ पर्यू॑ढा दी॒क्षया॑ गु॒प्ता य॒ज्ञे प्रति॑ष्ठिता लो॒को नि॒धन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒धया॑ । परि॑ऽहिता । श्र॒ध्दया॑ । परि॑ऽऊढा। दी॒क्षया॑ । गु॒प्ता । य॒ज्ञे । प्रति॑ऽस्थिता । लो॒क: । नि॒ऽधन॑म् ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वधया परिहिता श्रद्धया पर्यूढा दीक्षया गुप्ता यज्ञे प्रतिष्ठिता लोको निधनम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वधया । परिऽहिता । श्रध्दया । परिऽऊढा। दीक्षया । गुप्ता । यज्ञे । प्रतिऽस्थिता । लोक: । निऽधनम् ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
वह (स्वधया) स्वधा-अमृत शक्ति से (परिहिता) सुरक्षित, (श्रद्धया परि ऊढा) श्रद्धा से दृढ़ (दीक्षया गुप्ता) दीक्षा = दृढ़ संकल्प और बल से सुरक्षित (यज्ञे) यज्ञरूप परमेश्वर या प्रजापालक राजा पर आश्रित है। (लोकः निधनम्) यह लोक उसका आश्रय है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। सप्त पर्यायसूक्तानि। ब्रह्मगवी देवता। तत्र प्रथमः पर्यायः। १, ६ प्राज्यापत्याऽनुष्टुप, २ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप्, ३ चतुष्पदा स्वराड् उष्णिक्, ४ आसुरी अनुष्टुप्, ५ साम्नी पंक्तिः। षडृचं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
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