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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 51
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    छि॒न्ध्या च्छि॑न्धि॒ प्र च्छि॒न्ध्यपि॑ क्षापय क्षा॒पय॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    छि॒न्धि॒ । आ । छि॒न्धि॒ । प्र । छि॒न्धि॒ । अपि॑ । क्षा॒प॒य॒ । क्षा॒पय॑ ॥१०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    छिन्ध्या च्छिन्धि प्र च्छिन्ध्यपि क्षापय क्षापय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    छिन्धि । आ । छिन्धि । प्र । छिन्धि । अपि । क्षापय । क्षापय ॥१०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 51

    भावार्थ -
    हे (अङ्गिरसि) अङ्गिरस = ब्राह्मण विद्वान् की शक्ति रूपे ! दुष्ट पुरुष को (छिन्धि) काट डाल, (आच्छिन्धि) सब ओर से काट डाल, (प्रच्छिन्धि) अच्छी प्रकार काट डाल। (क्षापय क्षापय) उजाड़ डाल, उजाड़ डाल। (आददानम् उपदासय) ब्रह्मग के लेने और नाश करने हारे को विनाश कर डाल।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥

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