अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 33
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
मू॑ल॒बर्ह॑णी पर्याक्रि॒यमा॑णा॒ क्षितिः॑ प॒र्याकृ॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठमू॒ल॒ऽबर्ह॑णी । प॒रि॒ऽआ॒क्रि॒यमा॑णा । क्षिति॑: । प॒रि॒ऽआकृ॑ता ॥८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
मूलबर्हणी पर्याक्रियमाणा क्षितिः पर्याकृता ॥
स्वर रहित पद पाठमूलऽबर्हणी । परिऽआक्रियमाणा । क्षिति: । परिऽआकृता ॥८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 33
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
ब्रह्मद्वेषी द्वारा ब्रह्मगवी (पर्याक्रियमाणा) कड़छी से लोटी-पोटी जाती हुई उसके (मूलबर्हणी) मूल के नाश करने वाली और (पर्याकृता) खूब कड़छी से लोट-पोटी गई वहीं उसके लिये (क्षितिः) विनाशरूप है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवता च पूर्ववत्। २८ आसुरी गायत्री, २९, ३७ आसुरी अनुष्टुभौ, ३० साम्नी अनुष्टुप्, ३१ याजुपी त्रिष्टुप्, ३२ साम्नी गायत्री, ३३, ३४ साम्नी बृहत्यौ, ३५ भुरिक् साम्नी अनुष्टुप, ३६ साम्न्युष्णिक्, ३८ प्रतिष्ठा गायत्री। एकादशर्चं चतुर्थं पर्यायसूक्तम्॥
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