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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 66
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ती॒क्ष्णेन॑ क्षु॒रभृ॑ष्टिना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा । ती॒क्ष्णेन॑ । क्षु॒रऽभृ॑ष्टिना ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वज्रेण शतपर्वणा तीक्ष्णेन क्षुरभृष्टिना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वज्रेण । शतऽपर्वणा । तीक्ष्णेन । क्षुरऽभृष्टिना ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 66

    भावार्थ -
    हे (देवि अघ्न्ये) देवि अघ्न्ये ! ब्रह्मगवि ! (यथा) जिस तरह से हो वह (यमसदनात्) यमराज परमेश्वर के दण्डस्थान से (परावतः) परले (पापलोकान्) पाप के फलस्वरूप घोर लोकों को (अयात्) चला जावे (एवा) इस प्रकार तू (कृतागसः) पाप-कारी (देवपीयोः) देव, विद्वानों के शत्रु (अराधसः) अनुदार, घोर क्षुद्र (ब्रह्मयस्य) ब्रह्मघाती पुरुष के (शिरः) शिर और (स्कन्धान्) कन्धों को (शतपर्वणा) सौ पर्व वाले (क्षुरभृष्टिना) छुरे के धार से सम्पन्न (तीक्ष्णेन) तीखे तेज़ (वज्रेण) वज्र से (प्र जहि) काट डाल।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥

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