अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 18
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - याजुषी जगती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वज्रो॒ धाव॑न्ती वैश्वान॒र उद्वी॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठवज्र॑: । धाव॑न्ती । वै॒श्वा॒न॒र: । उत्ऽवी॑ता ॥७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
वज्रो धावन्ती वैश्वानर उद्वीता ॥
स्वर रहित पद पाठवज्र: । धावन्ती । वैश्वानर: । उत्ऽवीता ॥७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 18
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
ब्रह्मघ्न के लिये ब्रह्मगवी ही (धावन्ती) दौड़ती हुई दीखती है (वज्रः) वज्र तलवार होकर या (वैश्वानरः उद्वीता) अग्नि, बिजुली रूप होकर ऊपर उठती या धधकती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवताच पूर्वोक्ते। १२ विराड् विषमा गायत्री, १३ आसुरी अनुष्टुप्, १४, २६ साम्नी उष्णिक, १५ गायत्री, १६, १७, १९, २० प्राजापत्यानुष्टुप्, १८ याजुषी जगती, २१, २५ साम्नी अनुष्टुप, २२ साम्नी बृहती, २३ याजुषीत्रिष्टुप्, २४ आसुरीगायत्री, २७ आर्ची उष्णिक्। षोडशर्चं सूक्तम्॥
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