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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 51
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दे॒वी जोष्ट्र॒ी सर॑स्वत्य॒श्विनेन्द्र॑मवर्धयन्।श्रोत्रं॑ न कर्ण॑यो॒र्यशो॒ जोष्ट्री॑भ्यां दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। जोष्ट्री॒ऽइति॒। जोष्ट्री॑। सर॑स्वती। अ॒श्विना॑। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒न्। श्रोत्र॑म्। न। कर्ण॑योः। यशः॑। जोष्ट्री॒भ्याम्। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवी जोष्ट्री सरस्वत्यश्विनेन्द्रमवर्धयन् । श्रोत्रन्न कर्णयोर्यशो जोष्ट्रीभान्दधुरिन्द्रियँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीऽइति देवी। जोष्ट्रीऽइति। जोष्ट्री। सरस्वती। अश्विना। इन्द्रम्। अवर्धयन्। श्रोत्रम्। न। कर्णयोः। यशः। जोष्ट्रीभ्याम्। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 51
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे विद्वान, (देवी) प्रकाश पसरविणाऱ्या आणि (जोष्ट्री) (ज्या वेळा आरोग्यासाठी) सेवनीय आहेत, अशा (सरस्वती) विशेष प्रेरणा देणाऱ्या सायंकाळ व प्रातःकाळच्या दोन वेळा, तसेच (अश्विना) वायू आणि विद्युतरूप अग्नी ज्याप्रमाणे (इन्द्रम्‌) सूर्याला (अवर्धयन्‌) वाढवितात अर्थात त्याची शक्ती वाढवितात (प्रातःकाळानंतर सूर्य आकाशात वर वर जातो आणि वायू व विद्यूत त्याची शक्ती खाली वर पसरवितात) (त्याप्रमाणे हे विद्वान, तू आपले दैनंदिन व्यवहार नियंत्रित करीत जा) याशिवाय शहाणी माणसें (जोष्ट्रीभ्याम्‌) संसाराला (आरोग्य देणाऱ्या) या प्रातःसायंच्या वेळांना (कशाप्रकारे प्रिय मानतात?) जसे (कर्णयोः) कानाने आपली (यशः) कीर्ती वा स्तुती प्रिय वाटते (न) त्याप्रमाणे सूज्ञ लोक प्रातःसायं या वेळांना (दधुः) प्रिय म्हणून मान्य करतात. अथवा (वसुधेयस्य) ज्यामधे धन ठेवतात, त्या कोषातील (इन्द्रियम्‌) (वसुवने) धनाचा उपयोग करणाऱ्यासाठी (व्यन्तु) लोक कोषाकडे जातात. त्याप्रमाणे, हे विद्वान, तुम्हीही आपल्या सर्व व्यवहारांत संगती ठेवीत जा (दोन वेळांपासून लाभ घेत जा ॥51॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. जे लोक सूर्याची कार्यें (परिभ्रमण उदय-अस्त, कार्य, लाभ आदी) ओळखतात, ते जीवनात यशस्वी होऊन कान्तिमान व शोभायमान होतात ॥51॥

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