ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 61/ मन्त्र 14
तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिरो॑ व॒त्सं सं॒शिश्व॑रीरिव । य इन्द्र॑स्य हृदं॒सनि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इत् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ । व॒त्सम् । सं॒शिश्व॑रीःऽइव । यः । इन्द्र॑स्य । हृ॒द॒म्ऽसनिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिद्वर्धन्तु नो गिरो वत्सं संशिश्वरीरिव । य इन्द्रस्य हृदंसनि: ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इत् । वर्धन्तु । नः । गिरः । वत्सम् । संशिश्वरीःऽइव । यः । इन्द्रस्य । हृदम्ऽसनिः ॥ ९.६१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 61; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः) यो हि राष्ट्रजनः (इन्द्रस्य हृदंसनिः) स्वकीयप्रभोर्भक्तोऽस्ति (तम्) तं (इत्) निश्चयेन (नः गिरः) उपदेशप्रयुक्ता मदीया वाण्यः (वर्धन्तु) वर्धयन्तु। (वत्सम् संशिश्वरीः इव) यथा दुग्धपरिपूर्णा गौः स्ववत्सं वर्धयति तथैव ॥१४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो राष्ट्र (इन्द्रस्य हृदंसनिः) अपने स्वामी का भक्त है (तम्) उसको (इत्) निश्चय (नः गिरः) उपदेशप्रयुक्त मेरी वाणियें (वर्धन्तु) बढ़ायें (वत्सम् संशिश्वरीः इव) जिस प्रकार दुग्ध से परिपूर्ण गौ अपने बच्चे को बढ़ाती है, उसी प्रकार ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में स्वामिभक्ति का उपदेश किया गया है ॥१४॥
विषय
'इन्द्रस्य हृदंसनिः'
पदार्थ
[१] (नः गिरः) = हमारे स्तुति-वाणियाँ (इत्) = निश्चय से (तं वर्धन्तु) = उस सोम का वर्धन करने- वाली हों। उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (संशिश्वरी:) = उत्तम दुधार गौवें (वत्सम्) = बछड़े को बढ़ाती हैं। हम सोम का स्तवन करते हुए शरीर में सोम का वर्धन करें। [२] उस सोम का वर्धन करें, (यः) = जो कि (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (हृदंसनिः) = हृदय का सेवन करनेवाला है । एक जितेन्द्रिय पुरुष को यह सोम प्रिय होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम का स्तवन करें। सोम हमें प्रिय हो, जिससे हम इसका रक्षण करने की प्रबल कामनावाले हों ।
विषय
सब कोई उसकी शरण हों।
भावार्थ
(यः) जो (इन्द्रस्य) इन्द्र या राज्य पद के (हृदंसनिः) हृदय अर्थात् मर्मस्थल में व्यापकर उसको भोगने या प्राप्त करने वाला है (तम् इत्) उस को ही (नः गिरः) हमारी वाणियां (संशिश्वरीः इव वत्सं) दुधार गौवें जैसे बच्छे को बढ़ाती हैं उस प्रकार (वर्धन्तु) बढ़ावें। (२) उसी प्रकार जो प्रभु (इन्द्रस्य हृदंसनिः) इन्द्र जीव के हृदय पर वश करता है हमारी वाणियां उस प्रभु की स्तुतियां करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अमहीयुर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ५, ८, १०, १२, १५, १८, २२–२४, २९, ३० निचृद् गायत्री। २, ३, ६, ७, ९, १३, १४, १६, १७, २०, २१, २६–२८ गायत्री। ११, १९ विराड् गायत्री। २५ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As mother cows love, cheer and caress the calf, so let our songs of adoration celebrate and exalt Soma, love and grace of the heart of Indra, life’s glory on top of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात स्वामिभक्तीचा उपदेश केलेला आहे. ॥१४॥
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