ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 61/ मन्त्र 27
न त्वा॑ श॒तं च॒न ह्रुतो॒ राधो॒ दित्स॑न्त॒मा मि॑नन् । यत्पु॑ना॒नो म॑ख॒स्यसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । त्वा॒ । श॒तम् । च॒न । हुतः॑ । राधः॑ । दित्स॑न्तम् । आ । मि॒न॒न् । यत् । पु॒ना॒नः । म॒ख॒स्यसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न त्वा शतं चन ह्रुतो राधो दित्सन्तमा मिनन् । यत्पुनानो मखस्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठन । त्वा । शतम् । चन । हुतः । राधः । दित्सन्तम् । आ । मिनन् । यत् । पुनानः । मखस्यसे ॥ ९.६१.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 61; मन्त्र » 27
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत् पुनानः मखस्यसे) यो भवान् स्वप्रजाः सुखीकर्तुं धनं जिघृक्षति अतः (राधः) धनं (आदित्सन्तम्) गृह्णन् (त्वा) त्वां (शतम् चन हुताः) शतशो दुष्टजनाः (न मिनन्) बाधितुं न शक्नुवन्ति ॥२७॥
हिन्दी (2)
पदार्थ
(यत् पुनानः मखस्यसे) आप जो कि अपनी प्रजाओं को सुखी करने के लिये धनग्रहण करने की इच्छा करते हैं, इस से (राधः) धन को (आदित्सन्तम्) ग्रहण करते हुए (त्वा) तुमको (शतम् चन हुताः) सैंकड़ों कुटिल दुष्ट (न मिनन्) बाधित नहीं कर सकते ॥२७॥
भावार्थ
जो राजा प्रजा की रक्षा के निमित्त ‘कर’ लेता है, उसे कोई दूषित नहीं कर सकता है और उसकी रक्षा से सुरक्षित होकर प्रजा सर्वथैव निर्विघ्न रहती है, उससे दुष्ट दस्यु आदि कोई विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ॥२७॥
विषय
उसके कर्त्तव्य, शत्रुनाश, प्रजा की मान-रक्षा।
भावार्थ
(यत्) जब (पुनानः) देहवत् राष्ट्र को स्वच्छ करता हुआ तू मानो (मखस्यसे) यज्ञ सम्पादन करता है (शतं चन ह्रुतः) सैकड़ों भी कुटिल पुरुष (राधः दित्सन्तं चन त्वा) धन प्रदान करना चाहते हुए तुझे (मा मिनन्) न नाश करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अमहीयुर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ५, ८, १०, १२, १५, १८, २२–२४, २९, ३० निचृद् गायत्री। २, ३, ६, ७, ९, १३, १४, १६, १७, २०, २१, २६–२८ गायत्री। ११, १९ विराड् गायत्री। २५ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord of peace and purity, purifier and saviour of the celebrants, when you please to bless the devotee with prosperity and fulfilment in life’s yajna, not a hundred adversaries can stop or frustrate you.
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा प्रजेच्या रक्षणानिमित्त कर घेतो त्याला कोणी दोष देऊ शकत नाही व त्याच्या रक्षणाने सुरक्षित होऊन प्रजा निर्धास्त व निर्विघ्न राहते. त्यात दुष्ट, दस्यु इत्यादी विघ्न उत्पन्न करू शकत नाहीत. ॥२७॥
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