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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 61/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुम्मतीगायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒प॒घ्नन्प॑वते॒ मृधोऽप॒ सोमो॒ अरा॑व्णः । गच्छ॒न्निन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प॒ऽघ्नन् । प॒व॒ते॒ । मृधः॑ । अप॑ । सोमः॑ । अरा॑व्णः । गच्छ॑न् । इन्द्र॑स्य । निः॒ऽकृ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपघ्नन्पवते मृधोऽप सोमो अराव्णः । गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽघ्नन् । पवते । मृधः । अप । सोमः । अराव्णः । गच्छन् । इन्द्रस्य । निःऽकृतम् ॥ ९.६१.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 61; मन्त्र » 25
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोमः) रक्षाकर्ता प्रभुः (मृधः अपघ्नन्) घातकान्निघ्नन् अथ च (अराव्णः) ये चेमं देयं धनं न ददते  तान् (इन्द्रस्य) स्वकर्माधिकारिणः (निष्कृतम्) अधिकारे (अपगच्छन्) दुर्गतिरूपेण स्थापयन् (पवते) संसारं निर्विघ्नं करोति ॥२५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोमः) रक्षा करनेवाला स्वामी (मृधः अपघ्नन्) हिंसकों को मारता हुआ (अराव्णः) जो लोग देय धन नहीं देते, उनको (इन्द्रस्य) अपने कर्माधिकारी के (निष्कृतम्) अधिकार में (अपगच्छन्) दुर्गतिरूप से स्थापन करता हुआ (पवते) संसार को निर्विघ्न करता है ॥२५॥

    भावार्थ

    जो अपने रक्षक स्वामी अर्थात् राजा को देय धन (कर) नहीं देते, वे राजनियम से दण्डनीय होते हैं ॥२५॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1112

    ओ३म् अ॒प॒घ्नन्प॑वते॒ मृधोऽप॒ सोमो॒ अरा॑व्णः ।

    गच्छ॒न्निन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ॥

    ऋग्वेद 9/61/25

    सामवेद 510, 1213 

     

    जान मेरी बन सोम-सरिता 

    निर्मल नीरज सुसंस्कृत 

    पद पा ले सही 

    किरण तू बन जा 

    बन जा लहरिया 

    बन जा नभ की 

    निर्झर बरसी हुई बदली

    जान मेरी बन सोम-सरिता

     

    मनों की हिंसा बन गई चिन्ता 

    मन में घिरा संकोच 

    हृदय ना खुलते, ना ही बहते 

    कृपण हो गई सोच 

    राह आर्द्रता की रुक सी गई 

    भाई-भाई से रूठ गए हैं 

    मानवता भी लाज की मारी 

    झिझक गई 

    जान मेरी बन सोम-सरिता

     

    एक नजर सांसारिक धन पर 

    दूजी उपास्य पर है 

    भक्त करें आवाहन प्रभु को 

    फिर भी लगा तो भय है 

    सुनके यदि प्रभु आ ही गए 

    तो पोटली पाप की धरा ही ना ले 

    रहेगी मन की आशाएँ 

    सब धरी की धरी

    जान मेरी बन सोम-सरिता

     

    ऐ मेरे मन! 

    शिशु बन कर चल 

    पिता के घर में रह ले 

    हो जा पवित्र 

    त्याग कठोरता 

    द्रवीभूत हो बह ले 

    भक्तिभाव में है उदारता 

    ना है कृपणता 

    विरज मनोरथ के अवसर तो 

    मिलेंगे कई 

    जान मेरी बन सोम-सरिता

     

    प्रभु महेन्द्र संपत्तियों का घर है

    महल है उसका ब्रह्माण्ड 

    मानव तेरा भी छोटा महल है ये 

    हृदय भी तो है महान 

    विश्वपति का वैभव 

    विश्व में बिखर गया है 

    विस्तृत दान से विश्व की जानें

    हरख गईं

    जान मेरी बन सोम-सरिता

     

    जान मेरी तू निर्मल बन जा 

    बहा दे चहु दिसि सोम 

    खोल दे ग्रंथि तू संकोच की 

    बदल दे दृष्टिकोण 

    इन्द्र की आँखें तुझको निहारे 

    होंठ प्रेम के चूमें चाटें 

    देख के रश्मि-लहर-अहि

    जान मेरी बन सोम-सरिता

    निर्मल नीरज सुसंस्कृत 

    पद पा ले सही 

    किरण तू बन जा 

    बन जा लहरिया 

    बन जा नभ की 

    निर्झर बरसी हुई बदली

    जान मेरी बन सोम-सरिता

     

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई

    रचना दिनाँक :-  २७.८८.२०२१   २३.४० pm

    राग :- पीलू

    राग का गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा

                          

    शीर्षक :- इन्द्र के महल को भजन ६८५ वां

    *तर्ज :- *

    0118-718  

     

    सरिता = नदी   

    नीरज = कमल

    कृपण = कंजूस 

    आर्द्रता = विज्ञापन 

    उपास्य = जिस की उपासना की जाए आवाहन =पुकार

    द्रवीभूत = दयालुता 

    हरख = प्रसन्नता 

    ग्रंथि = गांठ 

    विरज = निर्मल,स्वच्छ 

    दृष्टिकोण = सोच, देखने का नजरिया

    अहि = बादल 

    रश्मि = किरण

     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

     

    इन्द्र के महल को

    विश्व सम्पत्तियों का घर है-- इन्द्र का, सकल सम्राटों के एक सम्राट का सजा हुआ महल है।

    इन्द्र का प्यारा पुत्र सोम--जीव--अपने पिता के घर से भटक गया है और अब उसकी खोज में है। वह उसे कहां ढूंढे?

    अपनी इसी खोज में। प्रभु को सच्चे हृदय से ढूंढना क्या है?

    उसे अपने ही अन्दर पा लेना। मानव का हृदय ब्रह्मांड का सार है। वह बड़ा महल है तो यह छोटा। विश्व-पति का जो वैभव विश्व में विस्तृत होकर बिखर गया है, यहां संक्षिप्त रूप में केंद्रीत--घनीभूत सा हो रहा है।

    ऐ मन ! चल। शिशु बन कर चल। पिता के घर की तलाश "पवमान" होने में है--आर्द्र होकर बह पड़ने में--ऐसा आर्द्र होने में कि सब कड़ाइयां कठोरताएं, अपने आप द्रवीभूत हो जाएं। मनों की कठोरता पारस्परिक हिंसा का रूप धारण कर रही है। मनुष्य को मनुष्य से संकोच है।हृदय

     खुलते नहीं, बहते नहीं। भाव की, भाषा की, कर्म की कृपणता हृदयों को कठोर बना रही हैं। आर्द्रता का रास्ता रुक रहा है। भाई-भाई गले मिलते तो है परन्तु तपाक से नहीं। पुत्र पिता को पिता कहता तो है परन्तु झिझक कर। उपासक की एक दृष्टि उपास्य पर लगी है, दूसरी अपनी सांसारिक संपत्तियों पर। भक्तों ने प्रभु का आवाहन किया है, परन्तु उसे डर है कि कहीं प्रभु मेरी सुन ही ना लें, कहीं आ ही ना जाएं। मेरी पाप की पोटली धरा ही ना लें। यही तो मेरा जीवन का सार है।

     कृपण भक्त प्रभु को कैसे पाए? भक्ति का रास्ता उदारता का है, मन की विशालता का है। संकोच इसमें बाधा रूप है।

    मेरी जान! तू सोम बन। बहने वाला, पवित्र निर्मल सोम बन। घनता ग्रंथि है, इसे हटा दे, खोल दे। पूर्ण द्रव हो। आंसुओं की बाढ़ में सब मल बहा दे। इन्द्र के सजे हुए महल को जाना है। आत्मा की सुसंस्कृत निर्मल नीरज पदवी को पाना है। तो तू स्फटिक सा स्वच्छ बन। द्रवीभूत 

    स्फटिक सा। किरण बन। लहर बन, बदली बन, शिशु बन। यह सब "सोम" हैं।

    संत बन, प्रभु का प्यारा बन।

    इन्द्र की आंखें तुझे देखें, प्रेम के होठों से तुझे चूमें चाटें, तेरी निष्पापता का, विशाल और विमल पवित्रता का, पान कर कर प्रसन्न हों।

    🕉👏🧘‍♂️ईश-भक्ति-भजन 

    भगवान् ग्रुप द्वारा🎧🙏

    🕉सभी वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएँ❤🙏

     

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    विषय

    उसके कण्टक-शोधन का कार्य।

    भावार्थ

    (सोमः) शासन करने के सामर्थ्य वाला पुरुष (इन्द्रस्य निष्कृतम् गच्छन्) दुष्टों के वध करने के अधिकार पद को प्राप्त करता हुआ (अराव्णः) अन्यों का अधिकार वा राजकर न देने वाले और (मृधः) प्रजा हिंसकों को (अप-ध्नन्) विनाश करता हुआ (पवते) राष्ट्र को दुष्टों से रहित कर स्वच्छ करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अमहीयुर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ५, ८, १०, १२, १५, १८, २२–२४, २९, ३० निचृद् गायत्री। २, ३, ६, ७, ९, १३, १४, १६, १७, २०, २१, २६–२८ गायत्री। ११, १९ विराड् गायत्री। २५ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Destroying the destroyers, eliminating the selfish, ungenerous hoarders and parasites, Soma, divine creativity in nature and humanity attains to its yajnic end and aim in the existential order created by omnipotent Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आपल्या रक्षक स्वामी अर्थात् राजाला कर देत नाहीत ते राजनियमाने दंडनीय असतात. ॥२५॥

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