ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 61/ मन्त्र 7
ए॒तमु॒ त्यं दश॒ क्षिपो॑ मृ॒जन्ति॒ सिन्धु॑मातरम् । समा॑दि॒त्येभि॑रख्यत ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । ऊँ॒ इति॑ । त्यम् । दश॑ । क्षिपः॑ । मृ॒जन्ति॑ । सिन्धु॑ऽमातरम् । सम् । आ॒दि॒त्येभिः॑ । अ॒ख्य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सिन्धुमातरम् । समादित्येभिरख्यत ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । ऊँ इति । त्यम् । दश । क्षिपः । मृजन्ति । सिन्धुऽमातरम् । सम् । आदित्येभिः । अख्यत ॥ ९.६१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 61; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एतम् त्यम् उ) तं भवन्तं (दश क्षिपः मृजन्ति) दशेन्द्रियाणि नियततया ज्ञानक्रियायां दक्षतां सम्पादयन्ति। यतो भवान् (सिन्धुमातरम्) सामुद्रिकपदार्थज्ञाता तथा (आदित्येभिः समख्यत) विद्युदादिशक्त्या सूक्ष्मातिसूक्ष्मपदार्थज्ञाता भवति। “आदित्यः कस्मादादत्ते रसानादत्ते भासं ज्योतिषामादीप्तो भासेति” नि० अ० २। खं० १३ ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एतम् त्यम् उ) उन आपको (दश क्षिपः मृजन्ति) दसों इन्द्रियें नियत होने से ज्ञानक्रिया दक्ष बनाती हैं। जिससे आप (सिन्धुमातरम्) समुद्रविषयक पदार्थों के ज्ञाता तथा (आदित्येभिः समख्यत) विद्युदादि शक्तियों द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों के ज्ञाता हो जाते हैं “आदित्यः कस्मादादत्ते रसानादत्ते भासं ज्योतिषामादीप्तो भासेति” नि० अ० २। खं० १३। ॥७॥
भावार्थ
ईश्वर का साक्षात्कार बुद्धि की वृत्तियों के द्वारा होता है ॥७॥
विषय
'सिन्धुमाता' सोम
पदार्थ
[१] (एतम्) = इस (उ) = निश्चय से (त्यम्) = प्रसिद्ध सोम को (दश) = दस (क्षिपः) = वासनाओं को परे फेंकनेवाली इन्द्रियाँ मृजन्ति शुद्ध करती हैं । इन्द्रियाँ वासनाओं से आक्रान्त नहीं होती, तो सोम शुद्ध बना रहता है। यह सोम (सिन्धुमातरम्) = ज्ञान की नदियों का निर्माण करनेवाला है । सोम से ही तो बुद्धि तीव्र होती है । [२] यह सोम (आदित्येभिः) = आदित्यों से (सं अख्यत) = सम्यक् देखा जाता है। आदित्य वे विद्वान् हैं जो कि 'प्रकृति- जीव- परमात्मा' का ज्ञान प्राप्त करते हैं । ये इस सोम के रक्षण का पूरा ध्यान करते हैं। इस सोमरक्षण से ही तो वस्तुतः ये 'आदित्य' बन पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये इन्द्रियों को वासनाशून्य बनाना आवश्यक है।
विषय
अति उदार का अभिषेक, उसकी सूर्यवत् स्थिति।
भावार्थ
(एतम् उ त्यं) उस (सिन्धु-मातरम्) नदियों के उत्पादक माता महापर्वत या मेघ के समान अति उदार पुरुष को (दश क्षिपः) दसों जाएं (मृजन्ति) अभिषेक करती हैं। वह उस समय (आदित्येभिः) १२ मासों से सूर्य के समान, १२ प्रकृतियों सहित (सम् अख्यत) दिखाई देता और शासन करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अमहीयुर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ५, ८, १०, १२, १५, १८, २२–२४, २९, ३० निचृद् गायत्री। २, ३, ६, ७, ९, १३, १४, १६, १७, २०, २१, २६–२८ गायत्री। ११, १९ विराड् गायत्री। २५ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Such as you are, O ruling soul, ten senses, ten pranas, ten subtle and gross modes of Prakrti and ten directions of space, all glorify you, mother source of all fluent streams of world energies shining with the zodiacs of the sun and all other brilliancies of nature and humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराचा साक्षात्कार बुद्धीच्या वृत्तीद्वारे होतो. ॥७॥
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