ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 61/ मन्त्र 21
सम्मि॑श्लो अरु॒षो भ॑व सूप॒स्थाभि॒र्न धे॒नुभि॑: । सीद॑ञ्छ्ये॒नो न योनि॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽमि॑श्लः । अ॒रु॒षः । भ॒व॒ । सु॒ऽउ॒प॒स्थाभिः । न । धे॒नुऽभिः॑ । सीद॑म् । श्ये॒नः । न । योनि॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सम्मिश्लो अरुषो भव सूपस्थाभिर्न धेनुभि: । सीदञ्छ्येनो न योनिमा ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽमिश्लः । अरुषः । भव । सुऽउपस्थाभिः । न । धेनुऽभिः । सीदम् । श्येनः । न । योनिम् । आ ॥ ९.६१.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 61; मन्त्र » 21
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
भवान् (श्येनः न योनिम् आसीदन्) विद्युदिव स्वस्थाने तिष्ठन् (न) तत्काल एव रणे (सूपस्थाभिः धेनुभिः सम्मिश्लः) दृढस्थितिमद्भिरिन्द्रियैर्मिश्रितः “सावधानी- भूयेत्यर्थः” (अरुषः भव) देदीप्यमानो भव ॥२१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
आप (श्येनः न योनिम् आसीदन्) विद्युत् के समान अपने स्थान में स्थित होते हुए (न) तत्काल ही युद्ध में (सूपस्थाभिः धेनुभिः सम्मिश्लः) दृढ़ स्थितिवाली इन्द्रियों से मिश्रित अर्थात् सावधान होकर (अरुषः भव) देदीप्यमान होवें ॥२१॥
भावार्थ
परमात्मा की शक्तियें विद्युत् के समान सदैव उग्ररूप से विद्यमान रहती हैं। जो पुरुष उनके विरुद्ध करता है, उसको आत्मिक सामाजिक और शारीरिकरूप से अवश्यमेव दण्ड मिलता है ॥२१॥
विषय
'अरुष' सोम
पदार्थ
[१] (न) = [सं प्रति] अब, हे सोम ! (सूपस्थाभिः) = उत्तम उपस्थानवाली धेनुभिः- वेदवाणीरूप धेनुओं से (संमिश्ल:) = मिला हुआ (अरुषः भव) = आरोचमान हो । सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है । इस दीप्त ज्ञानाग्नि से हम ज्ञान की वाणियों को समझनेवाले बनते हैं। यह समझना ही वेदवाणी रूप धेनुओं का सूपस्थान है। जब हम इन वाणियों का उपस्थान करते हैं, तो सोम को शरीर में सुरक्षित करनेवाले होते हैं। इस प्रकार इन धेनुओं से मिला हुआ यह सोम आरोचमान होता है । [२] हे सोम ! तू (श्येनः न) = शंसनीय गतिवाले के समान (योनिम्) = मूल उत्पत्ति-स्थान प्रभु में (आसीदन्) = स्थित होनेवाला हो। सोम के रक्षण से हमारे सब कर्म उत्तम होते हैं, हम भी सब गति शंसनीय होती हैं। हम अन्त: प्रभु को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान की वाणियों को अपनाने से सोम शरीर में सुरक्षित होता है। यह आरोचमान होता है, हमें प्रभु में स्थित करता है ।
विषय
राजा के अनेक कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे उत्तम शासक ! विद्वन् ! तू (श्येनः न) श्येन के समान वा उत्तम आचारवान् पुरुष के तुल्य (योनिम् आ सीदन्) अपने स्थान को प्राप्त कर (सु-उपस्थाभिः धेनुभिः) सुख से उपस्थित होने वाली गो तुल्य भूमियों, प्रजाओं और वाणियों से (सं-मिश्लः) सब से मिलने हारा और (अरूषः) रोषरहित, दीप्तिमान् (भव) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अमहीयुर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ५, ८, १०, १२, १५, १८, २२–२४, २९, ३० निचृद् गायत्री। २, ३, ६, ७, ९, १३, १४, १६, १७, २०, २१, २६–२८ गायत्री। ११, १९ विराड् गायत्री। २५ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Be bright and blazing, integrated with creative powers of growth, perception and imagination, sojourning over space and time yet resting in your seat at the centre of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या शक्ती विद्युतप्रमाणे सदैव उग्ररूपाने उपस्थित असतात. जो पुरुष त्यांच्या विरुद्ध वागतो त्याला आत्मिक, सामाजिक व शारीरिक रूपाने अवश्य दंड मिळतो. ॥२१॥
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