अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
92
तस्ये॒मे नव॒ कोशा॑ विष्ट॒म्भा न॑व॒धा हि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । इ॒मे । नव॑ । कोशा॑: । वि॒ष्ट॒म्भा: । न॒व॒ऽधा । हि॒ता: ॥४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्येमे नव कोशा विष्टम्भा नवधा हिताः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । इमे । नव । कोशा: । विष्टम्भा: । नवऽधा । हिता: ॥४.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(तस्य) उस [परमेश्वर] के (हिताः) धरे हुए [शरीर के] (इमे) यह (नव) नौ [दो कान, दो आँख, दो नथने, एक मुख, एक गुदा और एक उपस्थ] (कोशाः) आधार, (विष्टम्भाः) विशेष स्तम्भ [आलम्ब, सहारे] [अपनी, शक्तियों सहित] (नवधा) नव प्रकार से हैं ॥१०॥
भावार्थ
परमेश्वर ने नव द्वारवाले शरीर में श्रोत्रादि अद्भुत गोलक बनाकर उन में श्रवण आदि नव अद्भुत शक्तियाँ रक्खी हैं ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(तस्य) परमेश्वरस्य (इमे) दृश्यमानाः (नव) देहे द्वे श्रोत्रे, चक्षुषी, नासिके च मुखं च द्वे पापूपस्थे च (कोशाः) आधाराः (विष्टम्भाः) विशेषस्तम्भाः। आलम्बाः (नवधा) श्रवणादिशक्तिभिः सह नव प्रकारेण (हिताः) धृताः ॥
विषय
एक: एकवृत, एकः एव
पदार्थ
१. (तस्य) = उस प्रभु के (इमे) = ये (नव) = नौ (कोशा:) = निधिरूप इन्द्रियाँ-दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें, मुख, गुदा व उपस्थ (विष्टम्भा:) = शरीर के विशिष्ट स्तम्भ हैं ये (नवधा हिता:) = नौ प्रकार से नौ स्थानों में पृथक्-पृथक् स्थापित हुए हैं। इनकी रचना में उस प्रभु की अद्भुत् महिमा दृष्टिगोचर होती है। इनके द्वारा (स:) = वे प्रभु (प्रजाभ्यः विपश्यति) = प्रजाओं का विशेषरूप से ध्यान करते हैं। (यत् च प्राणयति यत् च न) = जो भी प्रजाएँ प्राणधारण कर रही हैं और जो प्राणधारण नहीं कर रही हैं, उन सबको प्रभु धारण कर रहे हैं। २. तम्-उस प्रभु को (इदं सः) = वह शत्रुमर्षक बल (निगतम्) = निश्चय से प्राप्त है। (सः एषः एकः) = वे ये प्रभु एक हैं, (एकवृत्) = एक ही है [एक: वर्तते]। (एकः एव) = निश्चय से एक ही हैं। (अस्मिन्) = इस प्रभु में (एते देवा:) = ये सब देव (एकवृतः) = [एकस्मिन् वर्तन्ते]-एक स्थान में होनेवाले (भवन्ति) = होते हैं। वे प्रभु सब देवों के आधार हैं, प्रभु से ही तो उन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा है।
भावार्थ
प्रभु ने शरीर में नौ इन्द्रियों को नौ कोशों के रूप में स्थापित किया है। वे प्रभु चराचर जगत् का ध्यान करते हैं। प्रभु को शत्रुमर्षक बल प्राप्त है। प्रभु एक हैं। सब देव इस प्रभु के आधारवाले हैं।
भाषार्थ
(तस्य) उस सविता के (इमे) ये (नव) नौ (कोशाः) कोश हैं, (विष्टम्भाः१) जो कि सविता को थामे हुए हैं, और (नवधा) नौ प्रकार से (हिताः) स्थापित किये हैं।
टिप्पणी
[परमेश्वर के थामने के स्थान, (बृहदा० उप० अ० ३। ब्रा० ७। खण्ड ३-२३)। नव कोशाः = अन्नमय (शरीर); प्राणमय (जिसे कि मारुतोगण कहा है (मन्त्र ८), मनोमय (मन, संकल्प-विकल्पात्मक), आनन्दमय (आनन्दमयी चित्तवृत्ति, सम्प्रज्ञात योग की विशेषावस्था, योग १।१७), विज्ञानमय (ज्ञानेन्द्रियां, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीवात्मा) ये ५ विज्ञानमय कोश हैं, अर्थात् ज्ञान के साधन और आधार हैं। ये नवकोश सविता परमेश्वर को थामे हुए हैं, और नौ प्रकार से अलग-अलग स्थापित हैं२]। [१. जो परमेश्वर जगदाधार है, द्युलोक और भू लोक को थामे हुए है, "स्कम्भेनेमे विष्टभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठतः।" (अथर्व० १०।८।२), उसे शारीरिक ९ कोश थामते हैं-यह कथन यद्यपि संगत प्रतीत नहीं होता। तो भी इस का अभिप्राय यह है कि संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं, सिवाय इन नौ कोशों के समूह के, जहां परमेश्वर साक्षात् अनुभूत हो सके, और उच्चकोटि के योगी जब चाहे अन्तर्ध्यानी होकर परमेश्वर के दर्शन पा सकें। इस लिये ९ कोशों के समूह को सविता के "विष्टम्भाः" कहा है। २. सुर्यपक्ष में ९ कोश = बुध, शुक्र, पृथिवी, मङ्गल, बृहस्पति, शनि, युरेनस (वरुणम्), नेपचून, चन्द्रमा। ये ९ कोष है जो कि सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं और जिन के मध्यवर्ती सूर्य है, अतः सूर्य के कोश है। इन द्वारा आकृष्ट किया सूर्य निज स्थान में विष्टब्ध हुआ है, थामा हुया है। अथवा चन्द्रमा के स्थान में "उल्का समूह" की गणना करनी चाहिये, जो कि मंगल और बृहस्पति के मध्य में गति करते हैं, जो कि पाश्चात्य ज्योतिषियों के अनुसार ग्रहरूप थे, और किसी कारण इस ग्रह के फट जाने से अब उल्कारूप (meteors) हो गए हैं, जो कि रात्रि में टूटते तारा के रूप में कभी-कभी दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हें उल्कापात कहते हैं।]
विषय
रोहित, परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(तस्य) उस आत्मा के (इमे) ये साक्षात् (नव कोशाः) नव कोश हैं। वे ही (नवधा) नव प्रकार के (विष्टम्भाः) विविधरूप से उसके स्तम्भन करने वाले, रोकने वाले, बन्धनरूप में (हिताः) स्थित हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मं रोहितादित्यो देवता। त्रिष्टुप छन्दः। षट्पर्यायाः। मन्त्रोक्ता देवताः। १-११ प्राजापत्यानुष्टुभः, १२ विराङ्गायत्री, १३ आसुरी उष्णिक्। त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Savita, Aditya, Rohita, the Spirit
Meaning
Of that Savita, these nine are the Koshas, sustaining and sustained by Savita, nine ways. (The Koshas sustaining and sustained by Savita are five koshas, i.e., annamaya, pranamaya, manomaya, anandamaya and vijnanamaya, in addition three faculties of perceptive organs, chitta and ahankara and Jivatma. Or, eight chakras described in Atharva-veda, 10, 2, 31 and 11,4, 22, and jivatma itself.)
Translation
These are his nine sheaths, (nine) supports set in nine places (or in nine ways).
Translation
These nine limbs of human body are the nine supports which are placed in nine ways are due to Him.
Translation
These nine coverings are laid by God in the body. They act differently as its nine supports.
Footnote
Nine Coverings: Two eyes* two ears* two nostrils, mouth, anus, penis. These organs work differently with their inherent powers of seeing, hearing, smelling, tasting, etc.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(तस्य) परमेश्वरस्य (इमे) दृश्यमानाः (नव) देहे द्वे श्रोत्रे, चक्षुषी, नासिके च मुखं च द्वे पापूपस्थे च (कोशाः) आधाराः (विष्टम्भाः) विशेषस्तम्भाः। आलम्बाः (नवधा) श्रवणादिशक्तिभिः सह नव प्रकारेण (हिताः) धृताः ॥
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