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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 40
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    56

    स य॒ज्ञस्तस्य॑ य॒ज्ञः स य॒ज्ञस्य॒ शिर॑स्कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । य॒ज्ञ: । तस्य॑ । य॒ज्ञ: । स: । य॒ज्ञस्य॑ । शिर॑: । कृ॒तम् ॥७.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यज्ञस्तस्य यज्ञः स यज्ञस्य शिरस्कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यज्ञ: । तस्य । यज्ञ: । स: । यज्ञस्य । शिर: । कृतम् ॥७.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 40
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [परमात्मा] (यज्ञः) संयोग-वियोग करनेवाला है, (तस्य) उस [परमात्मा] का (यज्ञः) संयोग-वियोग व्यवहार है, (सः) वह [परमात्मा] (यज्ञस्य) संयोग-वियोग व्यवहार का (शिरः) शिर [प्रधान] (कृतम्) किया गया है ॥४०॥

    भावार्थ

    परमात्मा संसार में परमाणुओं का संयोग-वियोग करने से सृष्टि और प्रलय का आदि कारण है, ऐसा विद्वान् मानते हैं ॥४०॥

    टिप्पणी

    ४०−(सः) परमेश्वरः (यज्ञः) म० ३९। संयोगवियोगकर्ता (तस्य) परमेश्वरस्य (यज्ञः) संयोगवियोगव्यवहारः (सः) परमेश्वरः (यज्ञस्य) संयोगवियोगव्यवहारस्य (शिरः) प्रधानः (कृतम्) ॥

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    विषय

    यज्ञरूप प्रभु

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (यज्ञः) = यज्ञ हैं, उपास्य हैं। (तस्य यज्ञ:) = उस प्रभु का ही यज्ञ है। वस्तुत: यज्ञ प्रभु ही करते हैं। (सः) = वे प्रभु (यज्ञस्य) = यज्ञ के (शिरः कृतम्) = सिर बनाये गये हैं। ओ३म् इस नाम से ही यज्ञों में सब मन्त्रों का आरम्भ किया जाता है [सैषा एकाक्षरा ऋक् ओ३म् तपसोऽग्ने प्रादुर्बभूव। एष वै यज्ञस्य परस्ताद् युज्यते एषा पश्चात् एतया यज्ञस्य तायते-गो० १.१२]। २. (स:) = वे प्रभु ही वस्तुतः इन यज्ञों के होने पर स्(तनयति) = मेघ-गर्जना के रूप में गरजते हैं। (स: विद्योतते) = वे विद्युत् के रूप में घोतित होते हैं, (उ) = और (स:) = वे ही (अश्मानं अस्यति) = ओलों की वृष्टि करते हैं, ओलेरूप पत्थरों को फेंकते हैं। ३. इसप्रकार वृष्टि के द्वारा सबके लिए अन्न उत्पन्न करते हैं। (पापाय वा) = चाहे वह पापी पुरुष हो (भद्राय वा पुरुषाय) = चाहे कल्याणी प्रकृति का कृती पुरुष हो। (वा असरस्य) = चाहे असुर हो, आसुरी प्रकृति का हो। आप सभी के लिए (यत्) = जो (वा) = निश्चय से (ओषधीः कृणोषि) = ओषधियों को करते हैं। (यत् वा) = अथवा जो (भद्रया वर्षसि) = कल्याण के हेतु से वृष्टि करते हैं (यत् वा) = अथवा जो (जन्यं अवीवृधः) = उत्पन्न होनेवाले प्राणियों का वर्धन करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु यज्ञ हैं। यज्ञों द्वारा बे वृष्टि करते हैं। वृष्टि के द्वारा वे सभी के लिए अन्नों का उत्पादन करते हैं।

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    भाषार्थ

    (सः) वह सविता (यज्ञः) यज्ञ है, (तस्य) उस सविता का (यज्ञः) यज्ञ है, (सः) वह सविता (यज्ञस्य) यज्ञ का (शिरः कृतम्) सिर रूप में कल्पित किया गया है।

    टिप्पणी

    [वेदों में संसार को शरीररूप मान कर, और संसार के घटक अवयवों को अङ्गरूप मान कर, इन्हें परमेश्वर के शरीर रूप में और अङ्गों के रूप में वर्णित किया है। यथा अथर्व० १०।७।१८-३४; तथा यजु० ३१।११-१३)। संसार और परमेश्वर में शरीर-शरीरिभाव का वर्णन यह दर्शाने के लिये हुआ है ताकि यह अनुभव किया जा सके कि जैसे अस्मदादि जीवनों में शरीर और शरीराङ्ग, चेतन जीवात्माओं के ज्ञान, इच्छा, तथा प्रेरणाओं द्वारा सक्रिय होते हैं, वैसे संसार और संसारावयव भी किसी विभु चेतन के ज्ञान, इच्छा तथा प्रेरणाओं द्वारा ही प्रेरित तथा सक्रिय हो रहे हैं। परन्तु इस से कहीं यह न समझ लिया जाय कि परमेश्वर वस्तुतः शरीरधारी है, इस लिये कहा कि "तस्य यज्ञः" अर्थात् यज्ञ उस का है, वह यज्ञ रूप नहीं है, वह यज्ञ का स्वामी है। इसे और स्पष्ट किया है कि "स यज्ञस्य शिरस्कृतम्", वह संसार का "सिर रूप" है। सिर प्रेरक है शरीर और शरीर के अंङ्गो का। इसी प्रकार परमेश्वर संसार और संसार के अंङ्गो का प्रेरक है। [शिरस्कृतम् = सिर रूप में कल्पित किया गया है]। परमेश्वर के सम्बन्ध स्पष्ट कहा है कि "अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्" (यजु० ४०।१८)।

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (सः यज्ञः) वह परमेश्वर स्वयं यज्ञस्वरूप, साक्षात् प्रजापति है। (तस्य) उसका स्वरूप ही (यज्ञः) यज्ञ है। (स) वह परमेश्वर ‘ओ३म्’ रूप से (यज्ञस्य) यज्ञ का (शिरः कृतम्) शिरोभाग बना हुआ है। सैषा एकाक्षरा ऋग् (ओ३म्) तपसोग्रे प्रादुर्बभूव। एषै व यज्ञस्य पुरस्ताद् युज्यते एषा पश्चात् सर्वतः एतया यज्ञस्तायते। इति गोपथ० १। २२ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २९, ३३, ३९, ४०, ४५ आसुरीगायत्र्यः, ३०, ३२, ३५, ३६, ४२ प्राजापत्याऽनुष्टुभः, ३१ विराड़ गायत्री ३४, ३७, ३८ साम्न्युष्णिहः, ४२ साम्नीबृहती, ४३ आर्षी गायत्री, ४४ साम्न्यनुष्टुप्। सप्तदशर्चं चतुर्थं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Savita, Aditya, Rohita, the Spirit

    Meaning

    He is yajna of the cosmos, and yajna is his, and he is the supreme power and deity of yajna.

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    Translation

    He is the sacrifice; the sacrifice is his; he has been made the head of the sacrifice (as if)

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    Translation

    He is known as Yajna, therefor,He is indeed this Yajna.He is made the supreme head of the Yajna.

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    Translation

    God is the embodiment of sacrifice. His very nature betokens sacrifice. He, as Om, is the head of sacrifice.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४०−(सः) परमेश्वरः (यज्ञः) म० ३९। संयोगवियोगकर्ता (तस्य) परमेश्वरस्य (यज्ञः) संयोगवियोगव्यवहारः (सः) परमेश्वरः (यज्ञस्य) संयोगवियोगव्यवहारस्य (शिरः) प्रधानः (कृतम्) ॥

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