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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    78

    तस्यै॒ष मारु॑तो ग॒णः स ए॑ति शि॒क्याकृ॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । ए॒ष: । मारु॑त: । ग॒ण: । स: । ए॒ति॒ । शि॒क्याऽकृ॑त: ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यैष मारुतो गणः स एति शिक्याकृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । एष: । मारुत: । गण: । स: । एति । शिक्याऽकृत: ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्य) उस का [परमेश्वर का बनाया हुआ] (एषः) यह (मारुतः) मनुष्यों का (गणः) समूह है, [क्योंकि] (सः) वह [परमेश्वर] (शिक्याकृतः) छींके में किये हुए सा (एति) व्यापक है ॥८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर मनुष्यों को उन के कर्मानुसार बनाता है। वह सब में ऐसा व्यापक है, जैसे कोई पदार्थ छींके के भीतर रक्खा हो ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(तस्य) परमेश्वरस्य रचितः (एषः) दृश्यमानः (मारुतः) मारुतं मरुतां मनुष्याणामिदम्-दयानन्दभाष्ये, ऋग्० २।११।१४। मनुष्यसम्बद्धः (गणः) समूहः (सः) (एति) व्याप्नोति (शिक्याकृतः) स्रंसेः शिः कुट् किच्च। उ० ५।१६। स्रंसु अधःपतने गतौ-यत्, कित् कुट् च, धातोः शि-इत्यादेशः, टाप्। शिक्यायां काचे कृतो धृतो यथा ॥

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    विषय

    दश वत्सा:

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस परमात्मा को (एकशीर्षाण:) = एक आत्मारूप सिरवाले (युता:) = परस्पर मिले हुए-मिलकर कार्य करते हुए (दश वत्सा:) = दस अत्यन्त प्रिय प्राण (उपतिष्ठन्ति) = समीपता से उपस्थित होते हैं। शरीर में प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय', इन दस भागों में विभक्त होकर कार्य करता है। ये शरीर में प्रियतम वस्तु हैं, इनके साथ ही जीवन है। इनकी साधना से इनका अधिष्ठाता 'आत्मा' प्रभु की उपासना करनेवाला बनता है। २. ये प्राण (पश्चात्) = पीछे व (प्राञ्चः) = आगे गतिवाले (आतन्वन्ति) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करते हैं। इस प्राणसाधना को करता हुआ जीव (यत् उदेति) = जब उत्कर्ष को प्राप्त करता है तब (विभासति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है। वस्तुत: यह प्राणसाधक प्रभु की दीति से (दीप्ति) = सम्पन्न बनता है। ३. (एष मारुतः गण:) = यह प्राणों का गण (तस्य) = उस प्रभु का ही है। प्रभु ही जीव के लिए इसे प्राप्त कराते हैं। (स) = वे प्रभु (शिक्याकृतः) = इन प्राणों का आधारभूत छींका बना हुआ (एति) = इस साधक को प्राप्त होता है। वस्तुत: प्रभु की उपासना प्राणशक्ति की वृद्धि का कारण बनती है। प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का उपासन कर पाते हैं।

    भावार्थ

    आत्मा अधिष्ठाता है, दस प्राण उसके वत्स हैं, प्रियतम वस्तु हैं। ये पीछे-आगे शरीर में सर्वत्र शक्ति का विस्तार करते हैं। इन प्राणों का आधार प्रभु हैं। ये प्राण हमें प्रभु प्रासि में सहायक होते हैं।

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    भाषार्थ

    (एषः मारुतः गणः) यह वायुओं का समूह (तस्य) उस सविता का है। (सः) वह वायु समूह (शिक्याकृतः) छिक्के में धरी वस्तु के समान (एति) गति करता है। सविता = परमेश्वर।

    टिप्पणी

    [मारुतोगणः= प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान आदि गण। यह शरीररूपी छिक्के में धरा हुआ शरीर में गति करता है। परन्तु इस गण का स्वामी परमेश्वर है। अन्तरिक्षस्थ वायुगण अन्तरिक्ष में गति करता और सूर्य उस का स्वामी है।]

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (तस्य) उस आत्मा का (एषः) यह (मारुतः गणः) मरुत् सम्बन्धी गण है। (सः) वह प्राणगण और देवगण (शिक्याकृतः एति) मानो इस मूर्धा में और उस महान् परमात्मा में ऐसे प्रतीत होता है जैसे एक छिक्के में धरा हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मं रोहितादित्यो देवता। त्रिष्टुप छन्दः। षट्पर्यायाः। मन्त्रोक्ता देवताः। १-११ प्राजापत्यानुष्टुभः, १२ विराङ्गायत्री, १३ आसुरी उष्णिक्। त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Savita, Aditya, Rohita, the Spirit

    Meaning

    The divine force of vibrant winds, Maruts in the sky and pranas in the human system, moves forward on the swing when the light of the divine Sun radiates to it. (Agni as the light and fire of divinity has three orders: fire on earth, vayu, or wind and electric energy in the sky, and aditya, or sunlight, in the solar region. When the sun shines and light radiates, it first fils the sky and then reaches the earth. This same analogy is here applied to the human psychic system in the process of spiritual realisation in meditation.)

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    Translation

    This is his troop of cloud-bearing winds. He comes as if placed on a swing.

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    Translation

    That this Mount-group of celestial forces ordained be Him come to their operation like things put together in porters’ thong.

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    Translation

    This multitude of human beings is God’s creation. It is safe in the hands of God, like articles laid in a rope swing.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(तस्य) परमेश्वरस्य रचितः (एषः) दृश्यमानः (मारुतः) मारुतं मरुतां मनुष्याणामिदम्-दयानन्दभाष्ये, ऋग्० २।११।१४। मनुष्यसम्बद्धः (गणः) समूहः (सः) (एति) व्याप्नोति (शिक्याकृतः) स्रंसेः शिः कुट् किच्च। उ० ५।१६। स्रंसु अधःपतने गतौ-यत्, कित् कुट् च, धातोः शि-इत्यादेशः, टाप्। शिक्यायां काचे कृतो धृतो यथा ॥

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