अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
93
र॒श्मिभि॒र्नभ॒ आभृ॑तं महे॒न्द्र ए॒त्यावृ॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठर॒श्मिऽभि॑: । नभ॑: । आऽभृ॑तम् । म॒हा॒ऽइ॒न्द्र: । ए॒ति॒ । आऽवृ॑त: ॥४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
रश्मिभिर्नभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः ॥
स्वर रहित पद पाठरश्मिऽभि: । नभ: । आऽभृतम् । महाऽइन्द्र: । एति । आऽवृत: ॥४.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(महेन्द्रः) बड़ा ऐश्वर्यवान् (आवृतः) सब ओर से ढका हुआ [अन्तर्यामी परमेश्वर] (रश्मिभिः) किरणों द्वारा (आभृतम्) सब प्रकार पुष्ट किये हुए (नभः) मेघमण्डल में (एति) व्यापक है ॥९॥
भावार्थ
मन्त्र २ के समान है ॥९॥यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-मन्त्र २ ॥
टिप्पणी
९−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-म० २ ॥
विषय
दश वत्सा:
पदार्थ
१. (तम्) = उस परमात्मा को (एकशीर्षाण:) = एक आत्मारूप सिरवाले (युता:) = परस्पर मिले हुए-मिलकर कार्य करते हुए (दश वत्सा:) = दस अत्यन्त प्रिय प्राण (उपतिष्ठन्ति) = समीपता से उपस्थित होते हैं। शरीर में प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय', इन दस भागों में विभक्त होकर कार्य करता है। ये शरीर में प्रियतम वस्तु हैं, इनके साथ ही जीवन है। इनकी साधना से इनका अधिष्ठाता 'आत्मा' प्रभु की उपासना करनेवाला बनता है। २. ये प्राण (पश्चात्) = पीछे व (प्राञ्चः) = आगे गतिवाले (आतन्वन्ति) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करते हैं। इस प्राणसाधना को करता हुआ जीव (यत् उदेति) = जब उत्कर्ष को प्राप्त करता है तब (विभासति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है। वस्तुत: यह प्राणसाधक प्रभु की दीति से (दीप्ति) = सम्पन्न बनता है। ३. (एष मारुतः गण:) = यह प्राणों का गण (तस्य) = उस प्रभु का ही है। प्रभु ही जीव के लिए इसे प्राप्त कराते हैं। (स) = वे प्रभु (शिक्याकृतः) = इन प्राणों का आधारभूत छींका बना हुआ (एति) = इस साधक को प्राप्त होता है। वस्तुत: प्रभु की उपासना प्राणशक्ति की वृद्धि का कारण बनती है। प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का उपासन कर पाते हैं।
भावार्थ
आत्मा अधिष्ठाता है, दस प्राण उसके वत्स हैं, प्रियतम वस्तु हैं। ये पीछे-आगे शरीर में सर्वत्र शक्ति का विस्तार करते हैं। इन प्राणों का आधार प्रभु हैं। ये प्राण हमें प्रभु प्रासि में सहायक होते हैं।
भाषार्थ
रश्मियों द्वारा हृदयाकाश भर गया है, क्योंकि ढका हुआ महेश्वर हृदयाकाश में आया है। देखो (मन्त्र २)।
विषय
रोहित, परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
व्याख्या देखो इसी सूक्त की द्रितीय ऋचा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मं रोहितादित्यो देवता। त्रिष्टुप छन्दः। षट्पर्यायाः। मन्त्रोक्ता देवताः। १-११ प्राजापत्यानुष्टुभः, १२ विराङ्गायत्री, १३ आसुरी उष्णिक्। त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Savita, Aditya, Rohita, the Spirit
Meaning
The sky, the heart, overflows with the light of divine Savita, Mahendra, Lord Supreme of self¬ refulgence, radiates and shines wrapped in light divine.
Translation
The great resplendent Lord comes to the dimmed -sky surrounded with rays. (Av. XIII.4.2)
Translation
The luminous space has been kept bound by the strings of God’s law. Mahendra the Almighty Lord covered in refulgence pervades it.
Translation
The Omnipresent Mighty God, hidden from all sides, pervades the clouds strengthened by rays.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-म० २ ॥
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