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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 47
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    आया॒त्विन्द्रोऽव॑स॒ऽउप॑ नऽइ॒ह स्तु॒तः स॑ध॒माद॑स्तु॒ शूरः॑। वा॒वृ॒धा॒नस्तवि॑षी॒र्यस्य॑ पू॒र्वीर्द्यौर्न क्ष॒त्रम॒भिभू॑ति॒ पुष्या॑त्॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। या॒तु॒। इन्द्रः॑। अव॑से। उप॑। नः॒। इ॒ह। स्तु॒तः। स॒ध॒मादिति॑ सध॒ऽमात्। अ॒स्तु॒। शूरः॑। वा॒वृ॒धा॒नः। व॒वृ॒धा॒नऽइति॑ ववृधा॒नः। तवि॑षीः। यस्य॑। पू॒र्वीः। द्यौः। न। क्ष॒त्रम्। अ॒भिभूतीत्य॒भिऽभू॑ति। पुष्या॑त् ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयात्विन्द्रो वसऽउप नऽइह स्तुतः सधमादस्तु शूरः । वावृधानस्तविषीर्यस्य पूर्वीर्द्यार्न क्षत्रमभिभूति पुष्यात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यातु। इन्द्रः। अवसे। उप। नः। इह। स्तुतः। सधमादिति सधऽमात्। अस्तु। शूरः। वावृधानः। ववृधानऽइति ववृधानः। तविषीः। यस्य। पूर्वीः। द्यौः। न। क्षत्रम्। अभिभूतीत्यभिऽभूति। पुष्यात्॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- যিনি (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্যের ধারণকর্ত্তা (ইহ) এই বর্ত্তমান কালে (স্তুতঃ) প্রশংসা প্রাপ্ত (শূরঃ) নির্ভয় বীরপুরুষ (পূর্বীঃ) পূর্ব বিদ্বান্গণ সুষ্ঠু শিক্ষা দ্বারা উত্তম কৃত (তবিষীঃ) সেনাদেরকে (বাবৃধানঃ) অত্যন্ত বৃদ্ধি প্রাপ্ত ব্যক্তি (য়স্য) যাহার (অভিভূতি) শত্রুদিগের তিরস্কার কারী (ক্ষত্রম্) রাজ্য (দ্যৌঃ) সূর্য্যের প্রকাশের (ন) সমান আচরণ করে । যে (নঃ) আমাদেরকে (পুষ্যাৎ) পুষ্ট করে সে আমাদের (অবসে) রক্ষাদির জন্য (উপ, আ, য়াতু) সমীপ প্রাপ্ত হউক এবং (সধমাৎ) সমান স্থান যুক্ত (অস্তু) হউক ॥ ৪৭ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য সূর্য্যের সমান ন্যায় ও বিদ্যা উভয়ের প্রকাশকারী, সৎকৃত হর্ষ ও পুষ্টি দ্বারা যুক্ত সেনা বিশিষ্ট, প্রজার পুষ্টি ও দুষ্টদিগের নাশকারী তিনি রাজ্যাধিকারী হইবেন ॥ ৪৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - আ য়া॒ত্বিন্দ্রোऽব॑স॒ऽউপ॑ নऽই॒হ স্তু॒তঃ স॑ধ॒মাদ॑স্তু॒ শূরঃ॑ ।
    বা॒বৃ॒ধা॒নস্তবি॑ষী॒র্য়স্য॑ পূ॒র্বীর্দ্যৌর্ন ক্ষ॒ত্রম॒ভিভূ॑তি॒ পুষ্যা॑ৎ ॥ ৪৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - আয়াত্বিত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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