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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 26
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - स्वराट आर्षी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    देवी॑रापऽए॒ष वो॒ गर्भ॒स्तꣳ सुप्री॑त॒ꣳ सुभृ॑तं बिभृत। देव॑ सोमै॒ष ते॑ लो॒कस्तस्मि॒ञ्छञ्च॒ वक्ष्व॒ परि॑ च वक्ष्व॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवीः॑। आ॒पः॒। ए॒षः। वः॒। गर्भः॑। तम्। सुप्री॑त॒मिति॒ सुऽप्री॑तम्। सुभृ॑त॒मिति॒ सुऽभृ॑तम्। बि॒भृ॒त॒। देव॑ सो॒म॒। ए॒षः। ते॒। लो॒कः। तस्मि॑न्। शम्। च॒। वक्ष्व॑। परि॑। च॒। व॒क्ष्व॒ ॥२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीरापऽएष वो गर्भस्तँ सुप्रीतँ सुभृतम्बिभृत । देव सोमैष ते लोकस्तस्मिञ्छञ्च वक्ष्व परि च वक्ष्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। आपः। एषः। वः। गर्भः। तम्। सुप्रीतमिति सुऽप्रीतम्। सुभृतमिति सुऽभृतम्। बिभृत। देव सोम। एषः। ते। लोकः। तस्मिन्। शम्। च। वक्ष्व। परि। च। वक्ष्व॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 26
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    भावार्थ -

    हे ( देवी : आपः ) दानशील, या ज्ञान प्रकाशयुक्त (आपः) आप्त प्रजाओ ! ( एषः ) यह राजा ( वः ) आप लोगों का ( गर्भः ) माताओं या गृह- देवियों द्वारा उत्तम रीति से गर्भ के समान रक्षा करने एवं धारण करने योग्य है । ( तम् ) उसको ( सुप्रीतम् ) अति उत्तम रीति से तृप्त, संतुष्ट और ( सुभृतम् ) उत्तम रीति से परिपुष्ट रूप में ( बिभृत ) धारण करो । हे ( देव सोम ) राजन् सर्व प्रेरक सोम ! ( ते एषः लोकः ) तेरा यह प्रजाजन ही निवास करने योग्य आश्रय है । तू ( तस्मिन् ) उसमें विद्यमान रहकर ( शं च वच्च ) शान्ति प्राप्त करा और उसको ( परि वच्च च ) अन्य नाना पदार्थ भी प्राप्त करा अथवा उसको सब ओर से धारण कर या राष्ट्रवासियों को (परि वच्च) सब कष्टों से पार कर, उससे बचा ॥ शत० ४ । ४ । २ । २१ ॥ 
    गृहस्थ पक्ष में- हे देवियो ! तुम लोग अपने गर्भ को भली प्रकार पुष्ट, तृप्त और सुप्रसन्न रूप में धारण पोषण करो। हे गृहपते ! यह पत्नी ही तेरा आश्रय है । उसको शान्ति दे और उसको अन्य पदार्थ भी प्रदान कर । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    आप: सोमदेवताः । स्वराडार्षी बृहती । मध्यमः॥ 

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