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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 51
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतयो गृहस्था देवताः छन्दः - भूरिक् आर्षी जगती, स्वरः - निषादः
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    इ॒ह रति॑रि॒ह र॑मध्वमि॒ह धृति॑रि॒ह स्वधृ॑तिः॒ स्वाहा॑। उ॒प॒सृ॒जन् ध॒रुणं॑ मा॒त्रे ध॒रुणो॑ मा॒तरं॒ धय॑न्। रा॒यस्पोष॑म॒स्मासु॑ दीधर॒त् स्वाहा॑॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह। रतिः॑। इ॒ह। र॒म॒ध्व॒म्। इ॒ह। धृतिः॑। इ॒ह। स्वधृ॑ति॒रिति॒ स्वऽधृ॑तिः। स्वाहा॑। उ॒प॒सृ॒जन्नित्यु॑पऽसृ॒जन्। ध॒रुण॑म्। मा॒त्रे। ध॒रुणः॑। मा॒तर॑म्। धय॑न्। रा॒यः। पोष॑म्। अ॒स्मासु॑। दी॒ध॒र॒त्। स्वाहा॑ ॥५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह रतिरिह रमध्वमिह धृतिरिह स्वधृतिः स्वाहा । उपसृजन्धरुणम्मात्रे धरुणो मातरन्धयन् । रायस्पोषमस्मासु दीधरत्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इह। रतिः। इह। रमध्वम्। इह। धृतिः। इह। स्वधृतिरिति स्वऽधृतिः। स्वाहा। उपसृजन्नित्युपऽसृजन्। धरुणम्। मात्रे। धरुणः। मातरम्। धयन्। रायः। पोषम्। अस्मासु। दीधरत्। स्वाहा॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 51
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    भावार्थ -

     हे प्रजापालक राजा के अधीन शासक पुरुषो! हे गृहपति जनो ! ( इह ) इस राष्ट्र और घर में ( रतिः ) आनन्द प्रमोद आपकी इच्छा रहे । ( इह रमध्वम् ) यहां आप लोग आनन्द से जीवन व्यतीत करो । ( इह ) यहां (धृतिः ) सब पदार्थ और व्यवहार स्थिर हैं आप लोगों की ( स्वधृतिः ) अपनी स्थिति और आपके समस्त पदार्थों की स्थिति ( स्वाहा ) सत्यवाणी और क्रिया भी यहां ही रहे। हे प्रजापालको ! आप लोग ( धरुणम् ) धारण करने योग्य जिस सन्तान को ( मात्रे ) पुत्र की माता के ( उप सृजन ) आधीन करते हो वह ( धरुणः ) बालक ( मातरम् ) उस माता का ( धयन् ) स्तन्यपान करता हुआ ( अस्मासु ) हम में ( स्वाहा ) उत्तम विद्या और सदाचार लाभ करके ( राय : पोषम् दीधरत् ) धनैश्वर्य की वृद्धि करे || शत० ४ । ६ । ७।९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    देवा ऋषयः । प्रजापतयो देवताः । आर्षी जगती । निषादः ॥ 

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