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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 61
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
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    चतु॑स्त्रिꣳश॒त् तन्त॑वो॒ ये वि॑तत्नि॒रे य इ॒मं य॒ज्ञ स्व॒धया॒ दद॑न्ते। तेषां॑ छि॒न्नꣳ सम्वे॒तद्द॑धामि॒ स्वाहा॑ घ॒र्मोऽअप्ये॑तु दे॒वान्॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चतु॑स्त्रिꣳश॒दिति॒ चतुः॑ऽत्रिꣳशत्। तन्त॑वः। ये। वि॒त॒त्नि॒र इति॑ विऽतत्नि॒रे। ये। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। स्व॒धया॑। दद॑न्ते। तेषा॑म्। छि॒न्नम्। सम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। ए॒तत्। द॒धा॒मि॒। स्वाहा॑। घ॒र्मः। अपि॑। ए॒तु॒। दे॒वान् ॥६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुस्त्रिँशत्तन्तवो ये वितत्निरे य इमँ यज्ञँ स्वधया ददन्ते । तेषाय्छिन्नँ सम्वेतद्दधामि स्वाहा घर्मा ऽअप्येतु देवान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चतुस्त्रिꣳशदिति चतुःऽत्रिꣳशत्। तन्तवः। ये। वितत्निर इति विऽतत्निरे। ये। इमम्। यज्ञम्। स्वधया। ददन्ते। तेषाम्। छिन्नम्। सम्। ऊँऽइत्यूँ। एतत्। दधामि। स्वाहा। घर्मः। अपि। एतु। देवान्॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 61
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    भावार्थ -

     ( ये ) जो ( इयं ) इस ( यज्ञं ) यज्ञ को ( वितत्निरे विस्तृत करते हैं वे ( चतुस्त्रिंशत् ) ३४ चौंतीस हैं। यज्ञ के विस्तार करने से ही वे ( तन्तवः ) तन्तु हैं । पट को बनाने वाले जैसे तन्तु होते हैं उसी प्रकार राज्य आदि के घटक अवयव भी ' तन्तु' ही कहाते हैं । इसी प्रकार जगन्मय यज्ञ के घटक भी ३४ तन्तु ही हैं । ( ये ) जो वे ( इमं यज्ञ ) इस यज्ञको ( स्वधया) स्वधा, अपने धारण सामर्थ्य से और अन्न आदि पोषण सामर्थ्य से ( ददन्ते ) धारण करते हैं । ( तेषाम् ) उनका जो ( छिन्नम् ) पृथक् अपना २ कर्त्तव्य कर्म और अंश है उसको मैं ( एतत् ) इस प्रकार एक संगठित रूप से ( स्वाहा ) सत्य वाणी या उत्तम परस्पर आदान प्रतिदान द्वारा ( सम् दधामि ) एकत्र जोड़ता हूं। वह ( धर्मः ) धर्म, यज्ञ प्रदीप्त राष्ट्र या एकत्र किया हुआ एकीभूत यज्ञ ( देवान् ) देवों, विद्वान् शासकों को ( अप्येतु) प्राप्त हो, उनके वश में रहे। ब्रह्माण्ड जगत् मय यज्ञ के ३४ तन्तु, आठ वसु, ११ रुद, १२ आदित्य, इन्द्र, प्रजापति और प्रकृति ये जगत् के ३४ कारण हैं । राष्ट्र में ५४ से ५९ तक कहे सोम राजा के अधीन ३४ पदाधिकारी जो सोम के ही अंश हैं वे ३४ तत्तु हैं ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    वसिष्ठ ऋषिः । यज्ञो देवता । स्वराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ 

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