यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 31
मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑॥३१॥
स्वर सहित पद पाठमरु॑तः। यस्य॑। हि। क्षये॑। पा॒थ। दि॒वः। वि॒म॒ह॒स॒ इति॑ विऽमहसः। सः। सु॒गो॒पात॑म॒ इति॑ सुऽगो॒पात॑मः। जनः॑ ॥३१॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः । स सुगोपातमो जनः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मरुतः। यस्य। हि। क्षये। पाथ। दिवः। विमहस इति विऽमहसः। सः। सुगोपातम इति सुऽगोपातमः। जनः॥३१॥
विषय - उत्तम रक्षक ।
भावार्थ -
हे ( विमहस: ) विविधरूपों से और विशेष रीति से पूजन, आदर सत्कार करने योग्य ( मरुतः ) मरुद्गणो ! वैश्यजनो ! और विद्वान पुरुषो ! एवं वायु के समान तीव्रगामी सैनिक पुरुषो ! आप लोग ( यस्य हि क्षये ) जिसके अधीन राष्ट्र में रहकर ( दिवः ) दिव्यगुणों को या उत्तम पदार्थों को ( पाथ ) प्राप्त होते और पालन करते हो ( सः ) वह ही ( जनः ) पुरुष ( सुगोपातमः ) सबसे उत्तम पृथ्वी या बाणी या प्रजा का रक्षक हैं || शत० ४ । ५ । २ । १७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
गोतम ऋषिः । मरुतो देवताः । आर्षी गायत्री । षड्जः ॥
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