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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 32
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ नऽइ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मभि॒रिति॒ भरी॑मऽभिः ॥३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मही द्यौः पृथिवी च न इमँयज्ञम्मिमिक्षताम् । पिपृतान्नो भरीमभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मही। द्यौः। पृथिवी। च। नः। इमम्। यज्ञम्। मिमिक्षताम्। पिपृताम्। नः। भरीमभिरिति भरीमऽभिः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 32
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    भावार्थ -

    (मही) बड़ी भारी पूजनीय ( द्यौः यो आकाश के समान या सूर्य के समान तेजस्वी और वीर्यवान्, सेचनसमर्थ राजा और पति और ( पृथिवी च ) उसके आश्रय पर प्राण धारण करनेवाली पृथिवी और धारणादि शक्ति सम्पन्न स्त्री के समान पृथिवीवासिनी प्रजा, दोनों ( इमं यज्ञम् ) इस राष्ट्रमय और गृहस्थरूप यज्ञ को ( मिमिक्षताम् ) सेचन करे । जैसे सूर्य पृथिवी पर वर्षा करता है और पृथ्वी अपना जल प्रदान करती हैं इस प्रकार वे प्राणियों के जीवनरूप अन्न से उनको पालते हैं उसी प्रकार राजा प्रजा से कर ले, प्रजा राजा के ऐश्वर्यो से बलवान् बने । इसी प्रकार पति पत्नी वीर्य सेचन करें और प्रजा लाभ करें। और दोनों नः ) हमें ( भरीमभिः ) भरण पोषणकारी पदार्थों और साधनों से ( पिपृताम् ) पालन करें, पूर्ण करें ॥ शत० ४ । ५ । २ । १८ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    मेधातिथिऋषिः । द्यावापृथिव्यौ दम्पती वा देवते । आर्षी गायत्री । षड्जः ॥ 
     

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