यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - विराट ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
1
अग्ना३इ पत्नी॑वन्त्स॒जूर्दे॒वेन॒ त्वष्ट्रा॒ सोमं॑ पिब॒ स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒र्वृषा॑सि रेतो॒धा रेतो॒ मयि॑ धेहि प्र॒जाप॑तेस्ते॒ वृष्णो॑ रेतो॒धसो॑ रेतो॒धाम॑शीय॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअग्नाऽ२इ। पत्नी॑व॒न्निति॒ पत्नी॑ऽवन्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। त्वष्ट्रा॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वृषा॑। अ॒सि॒। रे॒तो॒धा इति॑ रेतःऽधः। रेतः॑। मयि॑। धे॒हि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। ते॒। वृष्णः॑। रे॒तो॒धस॒ इति॑ रेतः॒ऽधसः॑। रे॒तो॒धामिति॑ रे॒तःऽधाम्। अ॒शी॒य॒ ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ना३इ पत्नीवन्त्सजूर्देवेन त्वष्ट्रा सोमम्पिब स्वाहा । प्रजापतिर्वृषासि रेतोधा रेतो मयि धेहि प्रजापतेस्त वृष्णो रेतोधसो रेतोधामशीय ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नाऽ२इ। पत्नीवन्निति पत्नीऽवन्। सजूरिति सऽजूः। देवेन। त्वष्ट्रा। सोमम्। पिब। स्वाहा। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। वृषा। असि। रेतोधा इति रेतःऽधः। रेतः। मयि। धेहि। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। ते। वृष्णः। रेतोधस इति रेतःऽधसः। रेतोधामिति रेतःऽधाम्। अशीय॥१०॥
विषय - राजा प्रजा तथा पति पत्नी का परस्पर मिलकर ऐश्वर्य भोग करना ।
भावार्थ -
हे ( अग्ने ) अग्ने ! अग्रणी राजन् ! हे ( पत्नीवन ) राष्ट्र के पालन करने वाली अपनी शक्ति सहित ! तू ( देवेन ) देव, दानशील, ( त्वष्ट्रा ) स्वष्टा सेनापति कसाथ ( सजूः ) सहयोग करके ( सोमस पिब ) सोम नाम राज पद का उपभोग कर ( स्वाहा ) इससे तेरा उत्तम यश होगा । . हे राजन् ! ( प्रजापतिः ) तू प्रजा का पालक ( वृषा) राष्ट्र पर सुखों का वर्षक या राष्ट्र का व्यवस्थापक (असि) है। तू ( रेतोधाः ) वीर्य का धारण करने वाला है । ( मयि ) मुझ राष्ट्र वासी प्रजाजन में भी ( रेतः ) वीर्य को (धाः ) धारण करा । ( प्रजापतेः) प्रजा के पालक (वृष्णः ) सब सुखों के वर्धक ( रेतोधसः ) उत्पादक वीर्य के धारक (ते) तेरे ( रेतोधाम्) वीर्य धारण करने में समर्थ राष्ट्र का ( अशीय ) मैं प्रजाजन भी भोग करु॥ शत० ४ । ४ । २।१५ -१८॥
गृहस्थ पक्ष में- हे अग्ने पत्नीवन् ! स्वामिन् ! ( देवेन त्वष्ट्रा सजूः ) त्वष्टा, वीर्य को पुत्र रूप से परिणत करने वाले दिव्य सामर्थ्य से युक्त होकर तू ( स्वाहा सोमम् पिब ) उत्तम रीति से सोम, ओषधि का पान कर हे पुरुष ! पते ! तू प्रजा का पालक वीर्यसेचन में समर्थ रेतस वीर्य धारण कराने वाला है। तू ( मयि ) मुझ पत्नी में वीर्य धारण करे । तुझ प्रजापति के ( रेतोधाम् अशीय) वीर्यवान् पुत्र को मैं प्राप्त करूं । अथवा वीर्याधान के सुख को प्राप्त करूं ॥
टिप्पणी -
१० – गृहपतयो देवताः । द० । अग्ने वाक् पत्नि सजू०' इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
अग्निः प्रजापतिश्च देवते । विराड् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal