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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 35
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - गृहपतिर्देवता छन्दः - आर्षी उष्णिक् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्र॒मिद्धरी॑ वह॒तोऽप्र॑तिधृष्टशवसम्। ऋषी॑णां च स्तु॒तीरुप॑ य॒ज्ञं च॒ मानु॑षाणाम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म्। इत्। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। व॒ह॒तः॒। अप्र॑तिधृष्टशवस॒मिति॒ अप्र॑तिऽधृष्टशवसम्। ऋषी॑णाम्। च॒। स्तु॒तीः। उप॑। य॒ज्ञम्। च॒। मानु॑षाणाम्। उपयामेत्यारभ्य पूर्ववत् ॥३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रमिद्धरी वहतोप्रतिधृष्टशवसम् । ऋषीणाञ्च स्तुतीरुप यज्ञञ्च मानुषाणाम् । उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा षोडशिने ऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा षोडशिने ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। इत्। हरीऽइति हरी। वहतः। अप्रतिधृष्टशवसमिति अप्रतिऽधृष्टशवसम्। ऋषीणाम्। च। स्तुतीः। उप। यज्ञम्। च। मानुषाणाम्। उपयामेत्यारभ्य पूर्ववत्॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 35
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    भावार्थ -

    ( अप्रतिधृष्टशबसम् ) जिसके बल को शत्रु कभी सहन करने में समर्थ नहीं हैं ऐसे ( इन्द्रम् ) इन्द्र, परमैश्वर्यवान् राजा या सेना- पति को ही ( हरी ) तीव्र गतिमान् अश्व ( वहतः ) वहन करते हैं । हे वीर- पुरुष राजन् ! तू ( ऋषीणाम् ) वेद मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषियों के ( स्तुती: ) स्तुतियों और ( मानुषाणां च ) मनुष्यों के ( यज्ञम् ) आदर सत्कार को ( उप ) प्राप्त हो । 
    परमेश्वर पक्ष में- हरी= ऋग्वेद और सामवेद । दोनों उस सर्वशक्तिमानू का वर्णन करते हैं । सब ऋषियों की स्तुतियां और सबकी उपासना उसी को प्राप्त होती हैं ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    गोतम ऋषिः । देवतादि पूर्वोक्तम् । 

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