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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 50
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतयो देवताः छन्दः - भूरिक् आर्षी जगती, स्वरः - निषादः
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    उ॒शिक् त्वं दे॑व सोमा॒ग्नेः प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि व॒शी त्वं दे॑व सो॒मेन्द्र॑स्य प्रि॒यं पाथोऽपी॑ह्य॒स्मत्स॑खा॒ त्वं दे॑व सोम॒ विश्वे॑षां दे॒वानां॑ प्रि॒यं पाथोऽपी॑हि॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शिक्। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। अ॒ग्नेः। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। व॒शी। त्वम्। दे॒व। सो॒म॒। इन्द्र॑स्य। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒। अ॒स्मत्स॒खेत्य॒स्मत्ऽसखा॑। त्वम्। दे॒व॒। सो॒म॒। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। अपि॑। इ॒हि॒ ॥५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशिक्त्वन्देव सोमाग्नेः प्रियम्पाथो पीहि वशी त्वन्देव सोमेन्द्रस्य प्रियम्पाथो पीह्यस्मत्सखा त्वन्देव सोम विश्वेषान्देवानाम्प्रियम्पाथो पीहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उशिक्। त्वम्। देव। सोम। अग्नेः। प्रियम्। पाथः। अपि। इहि। वशी। त्वम्। देव। सोम। इन्द्रस्य। प्रियम्। पाथः। अपि। इहि। अस्मत्सखेत्यस्मत्ऽसखा। त्वम्। देव। सोम। विश्वेषाम्। देवानाम्। प्रियम्। पाथः। अपि। इहि॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 50
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    भावार्थ -

    हे ( देवसोम ) दानशील, राजन् ! सोम ! तू ( उशिक् ) कान्तिमान् एवं इच्छावान् होकर ( अग्नेः) उत्तम विद्वान्, अग्रणी पुरुष के ( प्रियम् पाथः ) प्रिय लगाने वाले पालनकारी कर्त्तव्य को ( अपीहि) प्राप्त हो। हे ( देव सोम ) देव ! सोम ! राजन् ! (त्वम् ) तू ( इन्द्रस्य प्रियम् पाथः अपीहि ) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् सेनापति के प्रिय पालन व्यवहार को प्राप्त हो । हे (देव सोम ) देव राजन् ! सोम ! तू ( अस्मत् सखा ) हमारा मित्र होकर ( विश्वेषां देवानाम् ) समस्त देवों, विद्वानों, राज्याधिकारियों और प्रजाजनों के ( प्रियम् पाथः ) प्रिय अभिमत पालन कर्तव्य या पदाधिकार को प्राप्त हो ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    देवा ऋषयः प्रजापतिः सोमो देवता । स्वराडार्षी जगती । निषादः॥ 

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