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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 58
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - विराडाकृतिः स्वरः - पञ्चमः
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    इ॒यमु॒परि॑ म॒तिस्तस्यै॒ वाङ्मा॒त्या हे॑म॒न्तो वा॒च्यः प॒ङ्क्तिर्है॑म॒न्ती प॒ङ्क्त्यै नि॒धन॑वन्नि॒धन॑वतऽ आग्रय॒णऽ आ॑ग्रय॒णात् त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑ शाक्वररैव॒ते वि॒श्वक॑र्म॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्व॒या वाचं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम्। उ॒परि॑। म॒तिः। तस्यै॑। वाक्। मा॒त्या॒। हे॒म॒न्तः। वा॒च्यः। प॒ङ्क्तिः। है॒म॒न्ती। प॒ङ्क्त्यै। नि॒धन॑व॒दिति॑ नि॒धन॑ऽवत्। नि॒धन॑वत॒ इति॑ नि॒धन॑ऽवतः। आ॒ग्र॒य॒णः। आ॒ग्र॒य॒णात्। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑। त्रिनवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाभ्या॑म्। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाभ्या॒मिति॑ त्रिनवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑म्। शा॒क्व॒र॒रै॒व॒ते इति॑ शाक्वरऽरैव॒ते। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। वाच॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाभ्यः॑ ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयमुपरि मतिस्तस्यै वाङ्मात्या हेमन्तो वाच्यः पङ्क्तिर्हैमन्ती पङ्क्त्यै निधनवन्निधनवतऽआग्रयणऽआग्रयणात्त्रिणवत्त्रयस्त्रिँशौ । त्रिणवत्रयस्त्रिँशाभ्याँ शाक्वररैवते विश्वकर्मऽऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया वाचङ्गृह्णामि प्रजाभ्यो लोकन्ताऽईन्द्रम् गलितमन्त्राः लोकम्पृण च्छिद्रम्पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन् ॥ ताऽअस्य सूददोहसँ सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वा रोचने दिवः । इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः रथीतमँ रथीनाँवाजानाँ सत्पतिम्पतिम्


    स्वर रहित पद पाठ

    इयम्। उपरि। मतिः। तस्यै। वाक्। मात्या। हेमन्तः। वाच्यः। पङ्क्तिः। हैमन्ती। पङ्क्त्यै। निधनवदिति निधनऽवत्। निधनवत इति निधनऽवतः। आग्रयणः। आग्रयणात्। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाविति। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशाभ्याम्। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाभ्यामिति त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाभ्याम्। शाक्वररैवते इति शाक्वरऽरैवते। विश्वकर्म्मेति विश्वऽकर्मा। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। वाचम्। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रजाभ्यः॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 58
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - पती म्हणतो) हे विदुषी पक्षी, (इयम्‌) ही जी (उपरि) सर्वोपरी विराजमान अशी (मति:) बुद्धी आहे, (तस्यै) तिच्यामुळे (मात्या) विचार-शक्ती आणि विचारपूर्वक कर्म होत असते. तिच्यामुळेच (वाक्‌) वाणीचे (वाच्य:) उच्चारण आणि तद्नुरुप कर्म होत असते. (हेमन्त:) उष्णतानाशक हा हेमंतऋतू (हैमन्ती) या ऋतूचे प्रतिपादन ज्य (पंक्ति:) पंक्तिनामक छंदात केलेले आहे, ते (पड्क्त्यै) पक्तिं छंदातील (धिनवत्‌) ज्या मंत्रात सामवेदाचा मृत्युविषयक भाग आहे, (त्याचे वाचन करावे) (निधमनत:) मृत्यूविषयी (आग्रमण:) प्राप्त होणारे ज्ञान आणि परिणाम याविषयी (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) सामवेदाच्या बारा आणि तेहसीस स्तोत्रामधे (सांगितलेले आहे) (त्रिवण त्रयस्त्रिंशाभ्याम्‌) त्या स्तोत्राद्वारे (भाक्वरैनते) शक्ती आणि संपत्ती देणाऱ्या वस्तूंचे ज्ञान प्राप्त करून (विश्‍वकर्मा) सर्व सत्कर्म करणारा (ऋषि:) वेदार्थाची व्याख्या करणारा मनुष्य जसे आचरण करतो, तसेच मी (तुझा पती) आचरण करतो. (प्रजापतिगृहीत्या तुझ्या संतानांचा स्वामी मी तुला स्वीकार केले असून (त्वया) तुझ्या सह (प्रजाभ्य:) आपल्या बालक-बालिकांकरिता (वाचम्‌) विद्या, सुशिक्षा याने सुसंस्कृत वाणीचा (गृह्णमि) स्वीकार करीत आहे. (तुला आणि आपल्या मुलामुलीनां ती संस्कृत वाणी शिकवीत आहे) ॥58॥

    भावार्थ - भावार्थ - स्त्री-पुरुषांनी विद्वज्जनांचा उपदेश ऐकून बुद्धीचा विकास घडवावा. त्यांनी सांगितलेल्या विचारांप्रमाणे हेमंत ऋतूत कर्में करावीत आणि सामवेदाच्या स्तोत्रांचे अध्ययन करून महात्मा ऋषी लोकांप्रमाणे आपले आचरण ठेवावे. विद्या आणि सुशिक्षा यांने सुसंपन्न भाषा बोलानी, तसेच आपल्या संतानानादेखील तशीच सभ्य सुसंस्कृत वाणी उच्चारण करण्याचा उपदेश सदैव करावा ॥58॥

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