ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 18
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
धि॒ष्व वज्रं॒ गभ॑स्त्यो रक्षो॒हत्या॑य वज्रिवः। सा॒स॒ही॒ष्ठा अ॒भि स्पृधः॑ ॥१८॥
स्वर सहित पद पाठधि॒ष्व । वज्र॑म् । गभ॑स्त्योः । र॒क्षः॒ऽहत्या॑य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । स॒स॒ही॒ष्ठाः । अ॒भि । स्पृधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धिष्व वज्रं गभस्त्यो रक्षोहत्याय वज्रिवः। सासहीष्ठा अभि स्पृधः ॥१८॥
स्वर रहित पद पाठधिष्व। वज्रम्। गभस्त्योः। रक्षःऽहत्याय। वज्रिऽवः। ससहीष्ठाः। अभि। स्पृधः ॥१८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 18
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजादयः किं ध्यात्वा किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे वज्रिव इन्द्र राजंस्त्वं रक्षोहत्याय गभस्त्योर्वज्रं धिष्व स्पृधोऽभि सासहीष्ठाः ॥१८॥
पदार्थः
(धिष्व) धेहि (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम् (गभस्त्योः) हस्तयोर्मध्ये (रक्षोहत्याय) दुष्टानां हननाय (वज्रिवः) प्रशस्तशस्त्रास्त्रप्रयोगकुशल (सासहीष्ठाः) भृशं सहेथाः (अभि) आभिमुख्ये (स्पृधः) स्पर्हणीयान्त्सङ्ग्रामान् ॥१८॥
भावार्थः
हे राजन्त्सेनाजना वा यूयं शस्त्रास्त्रप्रयोगेषु कुशला भूत्वा दस्य्वादीन् शत्रून् हत्वा सहनशीला भवत ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा आदि क्या ध्यान करके क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वज्रिवः) प्रशंसित शस्त्र और अस्त्रों के चलाने में चतुर और अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त राजन् ! आप (रक्षोहत्याय) दुष्टों के मारने के लिये (गभस्त्योः) हाथों के मध्य में (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्रों के समूह को (धिष्व) धारण करिये तथा (स्पृधः) स्पृहा करने योग्य सङ्ग्रामों के (अभि) सन्मुख (सासहीष्ठाः) अत्यन्त सहिये ॥१८॥
भावार्थ
हे राजन् वा सेना के जनो ! आप लोग शस्त्र और अस्त्रों के चलाने में चतुर होकर डाकू आदि शत्रुओं का नाश करके सहनशील हूजिये ॥१८॥
भावार्थ
हे (वज्रिवः) वज्र अर्थात् शस्त्र वा शत्रु के वर्जन करने वाले बलों से युक्त पुरुषों के स्वामिन् ! तू ( रक्षो-हत्याय ) दुष्ट पुरुषों के नाश करने के लिये ( गभस्त्योः ) बाहुओं में ( वज्रं धिष्व ) शस्त्रवत् बल वीर्य को धारण कर । और ( स्पृधः ) स्पर्धा करने वाली शत्रुसेनाओं को (अभि ससहिष्ठा: ) मुक़ाबले पर पराजित कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
रक्षोहत्याय
पदार्थ
[१] हे (वज्रिवः) = वज्रवन् प्रभो ! आप (गभस्त्योः) = हाथों में (वज्रं धिष्व) = वज्र को धारण करिये। और (रक्षोहत्याय) = हमारे राक्षसीभावों के विनाश के लिये होइये । आपके अनुग्रह से क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लेकर हम राक्षसीभावों आक्रमण से बचे रहें। [२] हे प्रभो ! आप (स्पृधः) = स्पर्धमान अभि [गभी:] = आक्रमण करनेवाले इन शत्रुओं को (सासहीष्ठाः) = पराभूत करिये ।
भावार्थ
भावार्थ- हम हाथों में वज्र को धारण करके, क्रियाशील बनकर अन्तः व बाह्य शत्रुओं के आक्रमण से अपना रक्षण कर पायें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा किंवा सेनेतील लोकांनो ! तुम्ही शस्त्रास्त्रे चालविण्यात चतुर बनून दुष्ट शत्रूंचा नाश करून सहनशील व्हा. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O wielder of the thunderbolt of defence and power, take up the adamantine mace and thunder of power and justice in your hands for the destruction of evil and wickedness and face, challenge, resolve and win the battles ahead.
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