ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 32
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - बृबुस्तक्षा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्य॑ वा॒योरि॑व द्र॒वद्भ॒द्रा रा॒तिः स॑ह॒स्रिणी॑। स॒द्यो दा॒नाय॒ मंह॑ते ॥३२॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । वा॒योःऽइ॑व । द्र॒वत् । भ॒द्रा । रा॒तिः । स॒ह॒स्रिणी॑ । स॒द्यः । दा॒नाय॑ । मंह॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य वायोरिव द्रवद्भद्रा रातिः सहस्रिणी। सद्यो दानाय मंहते ॥३२॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। वायोःऽइव। द्रवत्। भद्रा। रातिः। सहस्रिणी। सद्यः। दानाय। मंहते ॥३२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 32
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
सद्विद्यादिदानेन किं भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यस्य सहस्रिणी भद्रा रातिर्वायोरिव द्रवत् स सद्यो दानाय मंहत इति वेद्यम् ॥३२॥
पदार्थः
(यस्य) (वायोरिव) (द्रवत्) द्रवति प्राप्नोति सद्यो गच्छति वा (भद्रा) मङ्गलकारिणी (रातिः) दानक्रिया (सहस्रिणी) असङ्ख्याः पदार्था दीयन्ते यस्यां सा (सद्यः) तूर्णम् (दानाय) (मंहते) वर्धते ॥३२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्यादिदानप्रिया जनाः स्युस्ते वायुरिव पूर्णमभीष्टं सुखं लभन्ते ये च शिल्पविद्यामुन्नयन्ति तेऽसङ्ख्यं धनं प्राप्नुवन्ति ॥३२॥
हिन्दी (3)
विषय
श्रेष्ठ विद्या आदि के दान से क्या होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यस्य) जिसकी (सहस्रिणी) असङ्ख्य पदार्थ दिये जाते हैं जिसमें वह (भद्रा) मङ्गल करनेवाली (रातिः) दान-क्रिया (वायोरिव) वायु के सदृश (द्रवत्) प्राप्त होती वा शीघ्र जाती है वह (सद्यः) शीघ्र (दानाय) दान के लिये (मंहते) बढ़ता है, ऐसा जानना चाहिये ॥३२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्या आदि के दान में प्रिय जन होवें, वे वायु के सदृश पूर्ण अभीष्ट सुख को प्राप्त होते हैं और जो शिल्पविद्या की वृद्धि करते हैं, वे असङ्ख्य धन को प्राप्त होते हैं ॥३२॥
विषय
उच्च तटवत् ज्ञानी की स्थिति ।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! ( यस्य ) जिस की ( सहस्रिणी ) सहस्रों ऐश्वर्य युक्त सुखों वाली (भद्रा रातिः ) कल्याणमय दान क्रिया ( वायोः इव ) वायु की शीतल धारा के समान ( सद्यः ) अति शीघ्र ( दानाय ) दान देने के लिये ( मंहते ) बढ़ती है ( सः ऊरुः गाङ्ग्यः कक्षः न मूर्धन् अधि स्थात् ) वह दुःख संकटों का काटने वाला महापुरुष नदी के ऊंचे तट के समान सबके शिरपर विराजता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
भद्रा राति: सहस्त्रिणी
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिसकी (सहस्त्रिणी रातिः) = सहस्र संख्यावाली व प्रसन्नतापूर्वक की गई [सहस्] दान क्रिया (वायोः इव) = वायु के समान (द्रवत्) = सर्वत्र गतिवाली होती है, वह दान क्रिया इसके लिये (भद्रा) = सदा कल्याणकारिणी व सुख देनेवाली होती है। [२] इस प्रकार दान के शुभ परिणामों को देखता हुआ यह व्यक्ति (सद्यः) = शीघ्र दानाय दान के लिये मंहते धनों को देता है। अथवा (दानाय) [दाप् लवने ] = शत्रुओं के उच्छेदन के लिये (मंहते) = दानवृत्तिवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रसन्नतापूर्वक की गयी दान क्रियाएँ मनुष्य का कल्याण ही करती हैं, ये आसुरभावों का उच्छेदन भी करती हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्यादानी असतात ते वायूप्रमाणे पूर्ण सुख प्राप्त करतात व जे शिल्पविद्येची उन्नती करतात ते असंख्य धन प्राप्त करतात. ॥ ३२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Whose gifts to society flow in a thousand directions like the currents of wind, his generosity and charities always and instantly, rise and continue to rise for the progress of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the result of imparting good education―ls told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men he, whose auspicious charity goes in thousands of ways and articles, swift like the rushing of the wind, grows quickly for donation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those person, who are lovers of giving the gift of knowledge and other things, enjoy full and desirable happiness. Those, who advance the cause of technology, obtain infinite wealth.
Foot Notes
(महंते) वर्धते । महंते इति दान कर्मा (NG 3,20) अत्र रतिः इत्यादि दानक्रिया योगार्दान वृद्धयर्थः। = Grows, multiplies.
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