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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 31
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - बृबुस्तक्षा छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अधि॑ बृ॒बुः प॑णी॒नां वर्षि॑ष्ठे मू॒र्धन्न॑स्थात्। उ॒रुः कक्षो॒ न गा॒ङ्ग्यः ॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । बृ॒बुः । प॒णी॒नाम् । वर्षि॑ष्ठे । मू॒र्धन् । अ॒स्था॒त् । उ॒रुः । कक्षः॑ । न । गा॒ङ्ग्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि बृबुः पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात्। उरुः कक्षो न गाङ्ग्यः ॥३१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि। बृबुः। पणीनाम्। वर्षिष्ठे। मूर्धन्। अस्थात्। उरुः। कक्षः। न। गाङ्ग्यः ॥३१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 31
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ व्यापारविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः उरुः कक्षो गाङ्ग्यो न पणीनां वर्षिष्ठे मूर्द्धन् बृबुरध्यस्थात् स युष्माभिः कार्य्ये संप्रयोजनीयः ॥३१॥

    पदार्थः

    (अधि) उपरि (बृबुः) छेत्ता (पणीनाम्) प्रशंसितानां व्यवहर्तॄणाम् (वर्षिष्ठे) अतिशयेन वृद्धे (मूर्द्धन्) मूर्धनि (अस्थात्) तिष्ठति (उरुः) बहुः (कक्षः) क्रान्तस्तटादिः (न) इव (गाङ्ग्यः) यो गां गच्छति तस्या अदूरभवः ॥३१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा भूमिषु गच्छन्त्याः सरितो मध्यस्थाः कक्षास्तटाश्च निकटे वर्त्तन्ते तथैव व्यापारिणां समीपे शिल्पिनो वर्त्तन्ताम् ॥३१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब व्यापार विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (उरुः) बहुत (कक्षः) जल का उल्लङ्घन करनेवाला टापू वा तट आदि (गाङ्ग्यः) पृथिवी को प्राप्त होनेवाली के समीप में वर्त्तमान (न) जैसे वैसे (पणीनाम्) प्रशंसा करने योग्य व्यवहार करनेवालों के (वर्षिष्ठे) अतिशय वृद्ध (मूर्द्धन्) मस्तक में (बृबुः) काटनेवाला (अधि) ऊपर (अस्थात्) स्थित होता है, वह आप लोगों से कार्य्य में उत्तम प्रकार संयुक्त करने योग्य है ॥३१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पृथिवियों में जाती हुई नदी के मध्यस्थ टापू और तट समीप में वर्त्तमान हैं, वैसे ही व्यापारियों के समीप में शिल्पीजन वर्त्तमान होवें ॥३१॥

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    विषय

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    भावार्थ

    (पणीनां ) विद्वान् पुरुषों के बीच में ( बृबुः ) संशयों का उच्छेदन करने वाला विद्वान् और (पणीनां ) व्यवहारज्ञ व्यापारी पुरुषों के बीच में (बृबुः) काट २ कर नये पदार्थ बनाने वाला शिल्पी तथा शत्रुओं का उच्छेदक वीर पुरुष ( गाङ्गयः कक्षः न ) वेगवती नदी के तट के समान ( वर्षिष्ठे मूर्धन् ) दानशील, सर्वोच्च, महान्, शिरोवत् उन्नत पद पर (उरुः ) महान् होकर ( अधि अस्थात् ) प्रतिष्ठित हो ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पणीनां बृबुः

    पदार्थ

    [१] (पणीनाम्) = पणियों का, एकदम सांसारिक लोभ आदि वृत्तियों का (बृबुः) = [ हन्तो द० ] उच्छेदन करनेवाला (पुरुः वर्षिष्ठे मूर्धन् अधि) = सर्वोच्च शिखर पर अस्थात् स्थित होता है। अधिक से अधिक उन्नत स्थिति में पहुँचता है। लोभ आदि कृपणतापूर्ण वृत्तियों को समाप्त करके ही हम उन्नति के शिखर पर पहुँचते हैं। [२] (न) = जैसे (गाङ्ग्यः) = एक तीव्रगति [गच्छति इति गंगा] वाली नदी के तट पर होनेवाला (कक्षः) = तृण भी समुद्र तक पहुँचता है, इसी प्रकार यह लोभद्वेष्टा पुरूष प्रभु तक पहुँचता है और (उरु:) = विशाल बनता है। प्रभु को प्राप्त करके प्रभु जैसा ही हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम लोभ आदि कृपणतापूर्ण वृत्तियों का उच्छेदन करके उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर स्थित हों। तीव्र गतिवाले नदी के तट का तृण जैसे समुद्र को प्राप्त करता है, उसी प्रकार हम उस विशाल प्रभु को प्राप्त करके विशाल ही हो जाएँ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पृथ्वीवरील नदीचा मध्यभाग व किनारा हे जवळच असतात तसे व्यापाऱ्याजवळ कारागीर असावेत. ॥ ३१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the maker, artist, analyst and architect, occupy and preside over the highest position in the world of business, wide and high like the embankment of a mighty river, to contain and control the flow of the current of waters.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now something about trade-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should utilize the service of carpenter or other artisan, who like the bank of the river sets him- self near the land (owing to his good virtues) over the head of the admired traders.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile used in the mantra. As there are banks and islands of the river flowing on earth, so there should be artists and artisans near the traders.

    Foot Notes

    (वृबुः) छेत्ता। बहू-उद्यमने (तुदाo)। = Cutter of wood etc. in various shapes, carpenter and other artisans (including goldsmiths, and ironsmiths etc.) (कक्षः) क्रान्तस्ततादिः = Island or bank etc. (गाङ्ग्यः) यो गा गच्छति तस्या अदूरभवः। गौरिति पर्थिविनाम (NG 1, 1)। = Standing near the land.

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