ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वमेक॑स्य वृत्रहन्नवि॒ता द्वयो॑रसि। उ॒तेदृशे॒ यथा॑ व॒यम् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । एक॑स्य । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒वि॒ता । द्वयोः॑ । अ॒सि॒ । उ॒त । ई॒दृशे॑ । यथा॑ । व॒यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमेकस्य वृत्रहन्नविता द्वयोरसि। उतेदृशे यथा वयम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। एकस्य। वृत्रऽहन्। अविता। द्वयोः। असि। उत। ईदृशे। यथा। वयम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राज्ञाऽमात्यैश्च कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे वृत्रहन् राजन् ! यथा वयमीदृश एकस्योत द्वयो रक्षका भवामस्तथा यतस्त्वमविताऽसि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥५॥
पदार्थः
(त्वम्) (एकस्य) असहायस्य (वृत्रहन्) यः सूर्यो वृत्रं हन्ति तद्वच्छत्रुहन्तः (अविता) रक्षकः (द्वयोः) राजप्रजाजनयोः (असि) (उत) (ईदृशे) ईदृग्व्यवहारे (यथा) (वयम्) ॥५॥
भावार्थः
हे राजन् ! यथा वयं पक्षपातं विहाय स्वकीयपरजनयोर्यथावन्न्यायं कुर्मस्तथैव भवान् करोतु। ईदृशे धर्म्ये वर्त्तमानानामस्माकं सदैवाभ्युदयनिःश्रेयसे भवतः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और मन्त्रियों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वृत्रहन्) मेघ को नाश करनेवाले सूर्य के समान शत्रुओं के मारनेवाले राजन् ! (यथा) जैसे (वयम्) हम लोग (ईदृशे) ऐसे व्यवहार में (एकस्य) सहायरहित के (उत) और (द्वयोः) राजा और प्रजाजनों के रक्षक होते हैं, वैसे जिससे (त्वम्) आप (अविता) रक्षक (असि) हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥५॥
भावार्थ
हे राजन् ! जैसे हम लोग पक्षपात का त्याग करके अपने और अन्य जन का यथावत् न्याय करें, वैसे ही आप करिये। ऐसे धर्म्मयुक्त व्यवहार में वर्त्तमान हम लोगों की सदा ही वृद्धि और मोक्ष होते हैं ॥५॥
विषय
missing
भावार्थ
हे ( वृत्रहन् ) मेघ को सूर्यवत् शत्रु को हनन करने हारे राजन् ! ( त्वम् ) तू ( एकस्य ) एक का ( उत ) और ( द्वयोः ) दोनों का भी ( अविता असि ) रक्षक हो ( उत ) और ( ईदृशे ) ऐसे अवसर पर भी रक्षक हो (यथा ) जैसे ( वयम् ) हम तुम्हारे रक्षक होते हैं । इत्येक विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
शक्ति व ज्ञान का रक्षण
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्) = वासना को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (एकस्य) = एक शरीर के बल के महान् (असि) = रक्षक हैं। (द्वयोः) = बल व ज्ञान दोनों के भी (अविता) [असि] = 'रक्षक' हैं । [२] उत और दोनों में भी (यथा वयम्) = जैसे कि हम हैं, उनमें भी आप शक्ति व ज्ञान के रक्षक होते हैं। हम बलहीन हैं। हमने क्या तो वृत्र को मारना और क्या शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करना ? यह तो आपका अनुग्रह है कि आप हम जैसे लोगों को भी वासनाविनाश के द्वारा ज्ञान व शक्ति-सम्पन्न बनाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु वासना को विनष्ट करके हमारे शरीरों में शक्ति व मस्तिष्कों में ज्ञान भरते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जसे आम्ही भेदभाव न करता आपला व इतर लोकांचा न्याय करतो तसे तूही कर. अशा धर्मयुक्त व्यवहाराने आमचा अभ्युदय व निःश्रेयस होतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord destroyer of evil like the sun, breaker of the clouds, you are the saviour and protector of the one, the lonely and helpless as well as of both the people and the officers of administration as we too likewise are supporters of the ruler and the people.
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