ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 26
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
दू॒णाशं॑ स॒ख्यं तव॒ गौर॑सि वीर गव्य॒ते। अश्वो॑ अश्वाय॒ते भ॑व ॥२६॥
स्वर सहित पद पाठदुः॒ऽनश॑म् । स॒ख्यम् । तव॑ । गौः । अ॒सि॒ । वी॒र॒ । ग॒व्य॒ते । अश्वः॑ । अ॒श्व॒ऽय॒ते । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दूणाशं सख्यं तव गौरसि वीर गव्यते। अश्वो अश्वायते भव ॥२६॥
स्वर रहित पद पाठदुःऽनशम्। सख्यम्। तव। गौः। असि। वीर। गव्यते। अश्वः। अश्वऽयते। भव ॥२६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 26
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
केषां सख्यं न जीर्यत इत्याह ॥
अन्वयः
हे वीर राजन् विद्वन् वा ! यस्त्वं गव्यते गौरिवाश्वायतेऽश्व इवासि यस्य तव प्रेमास्पदबद्धं दूणाशं सख्यमस्ति स त्वमस्माकं सुहृद्भव ॥२६॥
पदार्थः
(दूणाशम्) दुर्ल्लभो नाशो यस्य तत् (सख्यम्) मित्रत्वम् (तव) (गौः) धेनुरिव (असि) (वीर) धैर्य्यादिगुणयुक्त (गव्यते) गौरिवाचरते (अश्वः) तुरङ्गः (अश्वायते) अश्वमिवाचरते (भव) ॥२६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गोषु वृषभो वडवास्वश्वः प्रीतः सदैव वर्त्तते तथैव सज्जनानां मित्रताऽविनाशिनी भवतीति सर्वे विजानन्तु ॥२६॥
हिन्दी (3)
विषय
किन की मित्रता नहीं जीर्ण होती है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वीर) धीरता आदि गुणों से युक्त राजन् वा विद्वान् ! जो आप (गव्यते) गौ के सदृश आचरण करते हुए के लिये (गौः) गाय जैसे वैसे (अश्वायते) घोड़ों के सदृश आचरण करते हुए के लिये (अश्वः) घोड़ा जैसे वैसे (असि) हैं और जिन (तव) आपका प्रेम के आस्पद में बन्धा हुआ (दूणाशम्) दुर्लभ नाश जिसका वह (सख्यम्) मित्रपन है, वह आप हम लोगों के मित्र (भव) हूजिये ॥२६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गौओं में बैल और घोड़ियों में घोड़ा प्रसन्न सदा ही होता है, वैसे ही सज्जनों की मित्रता अविनाशिनी होती है, ऐसा सब लोग जानें ॥२६॥
विषय
अविनाशी मैत्रीभाव ।
भावार्थ
हे ( वीर ) विविध विद्याओं के उपदेष्टः ! विद्वन् ! और हे विविध प्रकारों से शत्रुओं को कंपाने हारे वीर पुरुष ! ( तव सख्यं ) तेरी मित्रता ( दूनाशं ) कभी नाश न होने वाली हो । तू ( गव्यते गौः असि ) गौ, भूमि, उत्तम वाणी को चाहने वाले के लिये गौ, भूमि, वाणियों के समान ही, पुष्टिकारक अन्नवत् और आह्लाद देने वाला हो । और ( अश्वायते अश्वः भव ) वेगवान् अश्व आदि के चाहने वाले के लिये तू स्वयं अश्व के समान संकट से पार करने में समर्थ हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
दूणाशं सख्यं तव [प्रभु की अटूट मैत्री]
पदार्थ
[१] हे वीर शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाले प्रभो ! (तव सख्यम्) = आपकी मित्रता (दूणाशम्) = नष्ट नहीं की जा सकती, अर्थात् अटूट है। सांसारिक मित्रताएँ स्वार्थवश विनष्ट हो जाती हैं, पर प्रभु की मित्रता कभी टूटनेवाला नहीं। [२] हे प्रभो! आप (गव्यते) = ज्ञानेन्द्रियों की कामनावाले पुरुष के लिये (गौः असि) = [गौः = गोदाता] ज्ञानेन्द्रिय बन जाते हैं, उसे ज्ञानेन्द्रियों के देनेवाले होते हैं तथा (अश्वायते) = कर्मेन्द्रियों की कामनावाले इस उपासक के लिये (अश्वः भव) = कर्मेन्द्रिय हो जाते हैं, इसे कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु हमारे अजरामर सखा हैं। हमें प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों व प्रशस्त कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे गाईच्या सहवासात बैल व घोडीबरोबर घोडा प्रसन्न असतो तशीच सज्जनांची मैत्री निरंतर टिकणारी असते, हे सर्वांनी जाणावे. ॥ २६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, potent lord ruler of multifarious acts and potential, never can your friendship toward the people be lost or destroyed, it is permanent and versatile. You are all love and revelation to a person in search of faith and knowledge, and you are all impetuous victor for a person thirsting for speed and progress. (The way we think and act, you respond.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Whose friendship does not end-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave king (or enlightened person) ! endowed with the power of endurance and other virtues, as the bull loves a cow, as the horse loves the mare, in the same manner, you be our friend, whose friendship is free from decay and firm.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a bull loves the cows and horse the mares in the same manner, the friendship of good men is imperishable or firm. This should be known to all.
Foot Notes
(दूणाशम्) दुल्लभो नाशो यस्य तत् । णश-अदर्शने (दिवा.)। = Imperishable or ever lasting.
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