ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 9
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वि दृ॒ळ्हानि॑ चिदद्रिवो॒ जना॑नां शचीपते। वृ॒ह मा॒या अ॑नानत ॥९॥
स्वर सहित पद पाठवि । दृ॒ळ्हानि॑ । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । जना॑नाम् । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । वृ॒ह । मा॒याः । अ॒ना॒न॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि दृळ्हानि चिदद्रिवो जनानां शचीपते। वृह माया अनानत ॥९॥
स्वर रहित पद पाठवि। दृळ्हानि। चित्। अद्रिऽवः। जनानाम्। शचीऽपते। वृह। मायाः। अनानत ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं निवार्य किं प्राप्नुयिरित्याह ॥
अन्वयः
हे अद्रिवोऽनानत शचीपते ! त्वं माया वृह चिदपि जनानां दृळ्हानि सैन्यानि सम्पाद्य शत्रून् वि वृह ॥९॥
पदार्थः
(वि) (दृळ्हानि) निश्चितानि (चित्) अपि (अद्रिवः) मेघकरसूर्यवद्वर्त्तमान (जनानाम्) मनुष्याणाम् (शचीपते) प्रजास्वामिन् (वृह) उच्छिन्धि (मायाः) कपटानि (अनानत) शत्रूणां समीपे नम्रतारहित ॥९॥
भावार्थः
स एव राजाऽऽचार्योऽध्यापको वोत्तमः स्याद्यो छलादिदोषान्निवार्य्य मनुष्यान् धर्माचारान्त्सततं कुर्यात् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किसका निवारण करके किसको प्राप्त होवें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अद्रिवः) मेघों के करनेवाले सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान (अनानत) शत्रुओं के समीप में नम्रता से रहित (शचीपते) प्रजा के स्वामिन् ! आप (मायाः) कपटों को (वृह) काटो और (चित्) भी (जनानाम्) मनुष्यों की (दृळ्हानि) निश्चित सेनाओं को करके शत्रुओं का (वि) विशेष करके नाश करिये ॥९॥
भावार्थ
वह राजा, आचार्य्य वा अध्यापक उत्तम होवे, जो छल आदि दोषों का निवारण करके मनुष्यों को धर्म्म के आचरण से युक्त निरन्तर करे ॥९॥
विषय
missing
भावार्थ
हे (अद्रिवः ) वज्रधर ! हे ( शचीपते ) शक्ति, वाणी के पालक ! हे (अनानत) शत्रुजन के आगे कभी न झुकने हारे ! तू ( जनानां) शत्रु लोगों को ( दृढ़ानि ) दृढ़दुर्गों और सैन्यों को तथा ( मायाः ) छल कपट के व्यवहारों को भी ( वि वृह ) उन्मूलन कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
शत्रु माया का विनाश
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = वज्रवन् प्रभो! आप (जनानाम्) = लोगों के (दृढानि चित्) = दृढ़मूल भी कामक्रोध आदि शत्रुओं को (विवृह) = उखाड़ दीजिये। प्रभु की उपासना के होने पर इन काम-क्रोध आदि शत्रुओं के साथ प्रभु का संघर्ष होता है। उस संघर्ष में इन शत्रुओं का विनाश होता है। इनका जोर तो मेरे पर ही चल रहा था। [२] हे (शचीपते) = शक्तियों व प्रज्ञानों के स्वामिन् ! (अनानत) = शत्रुओं से न दबाये गये प्रभो! आप इन शत्रुओं की (मायाः) = मायाओं को (विवृह) = उन्मूलित कर दीजिये। इन आसुरभावों की मायाओं को विनष्ट करनेवाले होइये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तोताओं के दृढमूल भी शत्रुओं का उन्मूलन करते हैं, इनकी मायाओं को विनष्ट करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जो छळ इत्यादी दोषांचे निवारण करून माणसांना धार्मिक आचरणात प्रवृत्त करतो तोच राजा उत्तम आचार्य किंवा अध्यापक असतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O bold and intrepidable ruler and protector of the people, lord of mighty action, you break the clouds and shake the mountains. Pray strengthen the strongholds of the people and uproot the wiles of the wicked.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men remove and what should they attain-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O lord of your subjects! you are unbending before your foes and splendid like the sun, rend as under, all deceptions of the wicked people and destroy your enemies by organising strong armies of brave men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king, preceptor or teacher is the best, who removes deceit and other evils and makes all men of righteous conduct.
Foot Notes
(अद्विव:) मेधकरसूर्यबद्धर्तमान । अद्रिः इति मेघनाम (NG 1, 10) तस्कर: सूर्यः अद्रिवान् । = Behaving like the sun. (माया:) कपटानि । माया इति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) अत्र दुष्ट प्रजा ! = Deceit, acts of deception or cheating due to bad intellect.
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