ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 23
न घा॒ वसु॒र्नि य॑मते दा॒नं वाज॑स्य॒ गोम॑तः। यत्सी॒मुप॒ श्रव॒द्गिरः॑ ॥२३॥
स्वर सहित पद पाठन । घ॒ । वसुः॑ । नि । य॒म॒ते॒ । दा॒नम् । वाज॑स्य । गोऽम॑तः । यत् । सी॒म् । उप॑ । श्र॒व॒त् । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न घा वसुर्नि यमते दानं वाजस्य गोमतः। यत्सीमुप श्रवद्गिरः ॥२३॥
स्वर रहित पद पाठन। घ। वसुः। नि। यमते। दानम्। वाजस्य। गोऽमतः। यत्। सीम्। उप। श्रवत्। गिरः ॥२३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 23
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
यद्यो जनो गोमतो वाजस्य वसुर्दानं नि यमते गिरः सीमुप श्रवत्स न घा हन्यते ॥२३॥
पदार्थः
(न) निषेधे (घा) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (वसुः) वासयिता (नि) नितराम् (यमते) यच्छति ददाति (दानम्) (वाजस्य) विज्ञानस्य (गोमतः) प्रशस्तवाग्युक्तस्य (यत्) (सीम्) सर्वतः (उप) (श्रवत्) शृणुयात् (गिरः) वाचः ॥२३॥
भावार्थः
यो मनुष्यो विद्याभयदाने ददाति सर्वेभ्यो विद्वद्भ्यः सत्यं शृणोति सोऽत्र जगति विघ्नैर्नैव हन्यते ॥२३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा प्रजाजन परस्पर कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यत्) जो जन (गोमतः) प्रशंसित वाणी से युक्त (वाजस्य) विज्ञान का (वसुः) वास दिलानेवाला (दानम्) दान को (नि) अत्यन्त (यमते) देता है (गिरः) वाणियों को (सीम्) सब प्रकार से (उप, श्रवत्) सुने वह (न, घा) नहीं मारा जाता है ॥२३॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्या और अभयदान देता और सम्पूर्ण विद्वानों से सत्य सुनता है, वह इस संसार में विघ्नों से नहीं मारा जाता है ॥२३॥
विषय
missing
भावार्थ
( यत् वसुः ) जो गुरु के अधीन अन्तेवासी होकर ( सीम् ) सबसे ( गिरः उप श्रवत् ) वेदवाणियों का श्रवण करे । वह ( गोमतः वाजस्य ) वाणी युक्त ज्ञान का ( दानं न घ नि यमते ) शिष्यों में दान देना न रोके । प्रत्युत शिष्यों को ज्ञान दिया करे । इसी प्रकार ( यत् सीम् गिरः उपश्चवत् ) जो राजा वा ऐश्वर्यवान् पुरुष सबसे अपने विषय में उत्तम स्तुतियां सुने वह ( वसुः ) प्रजा का बसाने हारा, ( गोमतः वाजस्य दानं न ध नि यमते ) उत्तम सत्कार योग्य वाणी से युक्त ऐश्वर्य के दान को कभी न रोके ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु स्तवन से ज्ञानयुक्त शक्ति की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (वसुः) = सबके बसानेवाले वे प्रभु (गिरः) = हमारी स्तुति वाणियों को (सीम्) = निश्चय से (उपश्रवद्) = सुनते हैं, तो (घा) = निश्चय से (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाले (वाजस्य) = शक्ति के (दानम्) = दान को (न नियमते) = उपरत नहीं करते, अर्थात् हमें ज्ञान व बल प्राप्त कराते ही हैं । [२] प्रभु सबको बसानेवाले हैं। इस निवास के लिये ही वे हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराते हैं। जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं तो हमें प्रभु ज्ञानयुक्त शक्ति देकर उत्तम निवासवाला करते ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु वसु हैं, हमारे निवास को उत्तम बनाते हैं। इसलिए ही वे हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराते हैं। सो हम सदा प्रभु स्तवन करनेवाले बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस विद्या व अभयदान देतो व संपूर्ण विद्वानांकडून सत्य ऐकतो त्याचे या जगात विघ्नांद्वारे हनन होत नाही. ॥ २३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And surely the lord giver of settlement and gifts of knowledge, power and speedy progress does not withhold the gifts since he closely hears the prayers of the devotee and responds.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the kings and their subjects mutually deal-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man, who being the repository of the knowledge endowed with good and refined speech, gives that (knowledge) to others and listens to the words (of wisdom) of enlightened persons, does not perish.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That man, who gives knowledge and freedom from fear and listens to the words of wisdom uttered by the enlightened men, is not destroyed by the obstacles.
Foot Notes
(यमते) यच्छति ददाति । यम-परिवेषणे (चु) परिवेषणं दानयेव ! = Gives. (गोमतः) प्रशस्तवाग्युक्तस्य । गौरिति वाङ्नाम (NG 1, 12)। = Of the person endowed with admirable speech.
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