ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
म॒हीर॑स्य॒ प्रणी॑तयः पू॒र्वीरु॒त प्रश॑स्तयः। नास्य॑ क्षीयन्त ऊ॒तयः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठम॒हीः । अ॒स्य॒ । प्रऽनी॑तयः । पू॒र्वीः । उ॒त । प्रऽश॑स्तयः । न । अ॒स्य॒ । क्षी॒य॒न्ते॒ । ऊ॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महीरस्य प्रणीतयः पूर्वीरुत प्रशस्तयः। नास्य क्षीयन्त ऊतयः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठमहीः। अस्य। प्रऽनीतयः। पूर्वीः। उत। प्रऽशस्तयः। न। अस्य। क्षीयन्ते। ऊतयः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! अस्य राज्ञो महीरुत पूर्वीः प्रणीतय ऊतयः सन्त्यस्य प्रशस्तयो न क्षीयन्ते ॥३॥
पदार्थः
(महीः) महत्यः (अस्य) राज्ञः (प्रणीतयः) प्रकृष्टा नीतयः (पूर्वीः) प्राचीना वेदोदिताः (उत) (प्रशस्तयः) सत्कीर्त्तयः (न) निषेधे (अस्य) (क्षीयन्ते) (ऊतयः) रक्षणाद्याः क्रियाः ॥३॥
भावार्थः
ये राजानो नित्यं महतीं राजधर्मनीतिं धृत्वा पुत्रवत् प्रजाः पालयन्ति तेषामक्षया कीर्तिर्जायते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (अस्य) इस राजा की (महीः) बड़ी (उत) और (पूर्वीः) प्राचीन वेदों में कही हुई (प्रणीतयः) उत्तम नीति और (ऊतयः) रक्षण आदि क्रियायें हैं (अस्य) इसकी (प्रशस्तयः) श्रेष्ठ कीर्तियाँ (न) नहीं (क्षीयन्ते) क्षीण होती हैं ॥३॥
भावार्थ
जो राजाजन नित्य बड़ी राजधर्म्मनीति को धारण करके पुत्र के सदृश प्रजाओं का पालन करते हैं, उनका नाशरहित यश होता है ॥३॥
विषय
उसके गुण ।
भावार्थ
( अस्य ) इस राजा के ईश्वर के समान ही ( महीः प्रणीतयः ) बड़ी उत्तम २ नीतियें और ( पूर्वी: ) सनातन से चली आई वेदोपदिष्ट ( प्र-शस्तयः ) उत्तम शासन विधान हों । ( अस्य ऊतयः ) उसके अनेक रक्षा आदि के साधन कभी ( न क्षीयन्ते ) क्षीण न हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
प्रणीति- प्रशस्ति ऊति
पदार्थ
[१] (अस्य) = इस प्रभु के (प्रणीतयः) = प्रणयन हमें उन्नतिपथ पर ले चलने के कार्य (महीः) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। (उत) = और (प्रशस्तयः) = इस प्रभु की प्रशस्तियाँ पूर्वी बहुत हैं अथवा हमारा पालन व पूरण करनेवाली हैं। [२] (अस्य) = इस प्रभु की (ऊतयः) = रक्षायें (न क्षीयन्ते) = कभी क्षीण नहीं होती। प्रभु के रक्षण कार्य सदा चलते ही हैं। मनुष्य अशक्ति व अज्ञान के कारण कई बार रक्षण नहीं कर पाता। चाहते हुए भी माता-पिता भी सन्तान के रक्षण में कई बार अपने को अशक्त अनुभव करते हैं। प्रभु के यहाँ अशक्ति व अज्ञान का प्रश्न ही नहीं है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के प्रणयन महान् हैं। प्रभु की प्रशस्तियाँ हमारा पालन व पूरण करनेवाली हैं। प्रभु के रक्षण कभी क्षीण नहीं होते।
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजे नित्य महान राजधर्मनीतीनुसार पुत्राप्रमाणे प्रजेचे पालन करतात त्यांना अखंड कीर्ती प्राप्त होते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Great are this ruler’s policies and acts of leadership, universal and admirable. Never do his honour, reputation and modes of defence, protection and progress go down.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of king duties is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! great and good are the policies of this king, as sanctioned by the eternal Vedas. His protections and glories never fail.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those kings, who ever upholding good policy, nourish their subjects like their own children, attain imperishable glory or good reputation.
Translator's Notes
The mantra is equally applicable to God, the king of kings or Sovereign of the world. By प्रणीतय: in that case is to be meant-ways of guiding or leading forward. The next mantra makes it clear that here also God can be taken.
Foot Notes
(पूर्वी:) प्राचीना वेदोविताः। = Ancient sanctioned by the Vedas. (प्रशस्तयः) सरकीर्त्तयः । प्र + शंसु स्तुतो (भ्वा.) । = Good reputation or glories.
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