ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 28
इ॒मा उ॑ त्वा सु॒तेसु॑ते॒ नक्ष॑न्ते गिर्वणो॒ गिरः॑। व॒त्सं गावो॒ न धे॒नवः॑ ॥२८॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माः । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । सु॒तेऽसु॑ते । नक्ष॑न्ते । गि॒र्व॒णः॒ । गिरः॑ । व॒त्सम् । गावः॑ । न । धे॒नवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ त्वा सुतेसुते नक्षन्ते गिर्वणो गिरः। वत्सं गावो न धेनवः ॥२८॥
स्वर रहित पद पाठइमाः। ऊँ इति। त्वा। सुतेऽसुते। नक्षन्ते। गिर्वणः। गिरः। वत्सम्। गावः। न। धेनवः ॥२८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 28
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कस्मै क्व किं प्राप्नुयादित्याह ॥
अन्वयः
हे गिर्वण ! सुतेसुतेऽस्मिञ्जगतीमा गिरो वत्सं धेनवो गावो न त्वा नक्षन्ते ता उ अस्मानपि प्राप्नुवन्तु ॥२८॥
पदार्थः
(इमाः) (उ) (त्वा) त्वाम् (सुतेसुते) उत्पन्न उत्पन्ने जगति (नक्षन्ते) व्याप्नुवन्तु प्राप्नुवन्तु। (गिर्वणः) गीर्भिः प्रशंसनीय (गिरः) सुशिक्षिता वाचः (वत्सम्) (गावः) (न) इव (धेनवः) दुग्धदात्र्यः ॥२८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये शुभाचरणाः सन्ति तान् गौः स्ववत्समिव सर्वा विद्या वाचः प्राप्नुवन्तु ॥२८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब किसके लिये कहाँ प्राप्त होवे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (गिर्वणः) वाणियों से प्रशंसा करने योग्य ! (सुतेसुते) उत्पन्न-उत्पन्न हुए इस संसार में (इमाः) ये (गिरः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियाँ (वत्सम्) बछड़े को (धेनवः) दुग्ध की देनेवाली (गावः) गौवें (न) जैसे वैसे (त्वा) आपको (नक्षन्ते) व्याप्त हों, वे (उ) और हम लोगों को भी प्राप्त हों ॥२८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो श्रेष्ठ आचरण करनेवाले हैं, उनको गौ जैसे बछड़े को, वैसे सम्पूर्ण विद्या और वाणियाँ प्राप्त होती हैं ॥२८॥
विषय
missing
भावार्थ
हे ( गिर्वणः ) विद्यायुक्त वाणियों से प्रशंसनीय, एवं उनका सेवन करने हारे विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! ( धेनवः गावः वत्सं न ) दूध देने वाली गौएं जिस प्रकार अपने बछड़े को बड़े प्रेम से प्राप्त करती हैं उसी प्रकार ( इमाः गिरः ) ये उत्तम वाणियें ( सुते-सुते ) जब २ और जहां भी जगत् उत्पन्न होता है वहां वा, प्रत्येक ऐश्वर्य के उत्पन्न होने पर (त्वा उ नक्षन्ते) तुझे ही प्राप्त होती हैं । अर्थात् तब २ तूही स्तुतियों और विद्याओं का भाजन होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
सोमरक्षण व प्रभु स्तवन
पदार्थ
[१] हे (गिर्वणः) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित इन स्तुति-वाणियों से सेवनीय प्रभो ! (इमाः गिरः) = ये वाणियाँ (उ) = निश्चय से (त्वा) = आपको (सुते सुते) = सोम का जब-जब सम्पादन होता है तब तब, अर्थात् शरीर में सोम का रक्षण होने पर (नक्षन्ते) = व्याप्त करती हैं। सोमरक्षण के अभाव में हमारी वृत्ति असंयम व भोग की होकर प्रभु से दूर प्रकृति की ओर भागी हुई होती है। [२] हे प्रभो ! हमारी यही कामना है कि (न) = जैसे (धेनवः गावः) = दोग्ध्री गौवें, नवसूतिका गौवें (वत्सम्) = बछड़े की ओर प्रेम से जाती हैं, इसी प्रकार हमारी स्तुति-वाणियाँ आपकी ओर आनेवाली हों। सदा प्रभु का स्तवन करते हुए ही वस्तुतः हम सोम का रक्षण कर पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा ज्ञानपूर्वक प्रभु की स्तुति-वाणियों का उच्चारण करनेवाले हों।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. गाय जशी वासराला दूध देते तसे जे श्रेष्ठ आचरण करणारे असतात त्यांना संपूर्ण विद्या व वाणी प्राप्त होते. ॥ २८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These words and voices of adoration, O spirit adorable, reach you, in every yajna, in every cycle of creation, like cows rushing to the calf with love.
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