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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 24
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    कु॒वित्स॑स्य॒ प्र हि व्र॒जं गोम॑न्तं दस्यु॒हा गम॑त्। शची॑भि॒रप॑ नो वरत् ॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित्ऽस॑स्य । प्र । हि । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । द॒स्यु॒ऽहा । गम॑त् । शची॑भिः । अप॑ । नः॒ । व॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुवित्सस्य प्र हि व्रजं गोमन्तं दस्युहा गमत्। शचीभिरप नो वरत् ॥२४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित्ऽसस्य। प्र। हि। व्रजम्। गोऽमन्तम्। दस्युऽहा। गमत्। शचीभिः। अप। नः। वरत् ॥२४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 24
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृग्भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    यो दस्युहा राजा शचीभिः कुवित्सस्य गोमन्तं व्रजमप गमत्स हि नः प्र वरत् ॥२४॥

    पदार्थः

    (कुवित्सस्य) यः कुविन्महत्सनति विभजति तस्य (प्र) (हि) (व्रजम्) व्रजन्ति यस्मिंस्तम् (गोमन्तम्) प्रशस्ता गावो विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (दस्युहा) दस्यून् दुष्टाञ्चोरान् हन्ति (गमत्) गच्छति (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्म्मभिर्वा (अप) दूरीकरणे (नः) अस्मान् (वरत्) वृणुयात् ॥२४॥

    भावार्थः

    यो राजा दस्यून् दुष्टाञ्जनान् दूरीकृत्य न्यायव्यवहारप्रचारायोत्तमान् जनान्त्स्वीकरोति स महतोः सत्यासत्ययोर्विवेचको भवति ॥२४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (दस्युहा) दुष्ट चोरों को मारनेवाला राजा (शचीभिः) बुद्धिवाले कर्मों से (कुवित्सस्य) अत्यन्त विभाग करनेवाले के (गोमन्तम्) प्रशंसित गौवें विद्यमान और (व्रजम्) चलते हैं जिसमें उसकी (अप, गमत्) प्राप्त होता है वह (हि) ही (नः) हम लोगों को (प्र, वरत्) स्वीकार करे ॥२४॥

    भावार्थ

    जो राजा दुष्टजनों को दूर करके न्याय व्यवहार के प्रचार के लिये उत्तम जनों का स्वीकार करता है, वह बड़े सत्य और असत्य का विचार करनेवाला होता है ॥२४॥

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    विषय

    प्रजाओं को वत्सों के प्रतिः गोवत् राजा के प्रति वात्सल्य भाव ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( दस्युहा ) दुष्ट पुरुषों का नाश करने वाला प्रबल राजा ( कुवित्सस्य ) बहुत से विवेकपूर्वक धन विभाग वा न्याय करने वाले अति विवेकी पुरुष के ( गोमन्तं व्रजं ) वाणी से युक्त उत्तम मार्ग को ( प्र गमत् ) अच्छी प्रकार जाता है वह सत्-मार्गगामी राजा ही ( नः ) हमें ( शचीभिः ) उत्तम वाणियों, प्रज्ञाओं और शक्तियों से ( अप वरत् ) हमारे कष्ट दूर करता हुआ हमें अपनावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    कुवित्स का गोमान् व्रज

    पदार्थ

    [१] (दस्युहा) = दास्यव [= राक्षसी] भावों का विनाश करनेवाले प्रभु (कुवित्सस्य) = [कुवित् स्यति] खूब ही शत्रुओं के विनष्ट करनेवाले उपासक के हि निश्चय से (गोमन्तम्) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (वज्रम्) = इस शरीररूप गोष्ठ को (गमत्) = प्राप्त होते हैं। [२] यहाँ हम कुवित्सों को प्राप्त होकर वे प्रभु (नः) = हमारी इन इन्द्रियरूप गौओं को (शचीभिः) = अपने प्रज्ञानों व बलों से (अपवरत्) = वासना के आवरण से रहित करते हैं। हम भी वासनाओं को दूर करने के लिये यत्नशील हों। प्रभु हमारी इन्द्रियों को इन विषयों के आवरण से रहित करेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभु हमारे दास्यवभावों को विनष्ट करके हमारी इन्द्रियों को अज्ञान के आवरण से रहित करते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा दुष्ट लोकांना दूर करून न्यायाच्या व्यवहारासाठी उत्तम लोकांचा स्वीकार करतो तो सत्यासत्याचा विचार करणारा असतो. ॥ २४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the lord destroyer of evil, negativity and poverty visit the homestead of the prayerful devotee blest with lands, cows and divine knowledge and open up the flood gates of wealth, power and divine grace for us with his vision and powers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a king be-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let that king ! destroyer of the wicked thieves and robbers, who with his wisdom or actions goes to the path, where there are many cows of a liberal man, who distributes much, accept us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man becomes a discriminator between truth and untruth, who removes all wicked persons, thieves and robbers and accepts the best persons, for the propagation of just dealing.

    Foot Notes

    ( कुवित्सस्य ) यः कुवित्महत्सनति विभजति तस्य । कुवित् इति बहुनाम (NG 3, 1)। = Of the person who distributes much. (व्रजम् ) व्रजन्ति यस्मिस्तम् । व्रज-गतौ (भ्वा०.) । = Path.

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