अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑ । स॒वि॒तु: । भा॒ग: । स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य सवितुर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य । सवितु: । भाग: । स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(आपः देवीः) हे दिव्य प्रजाओ ! तुम (देवस्य सवितुः) सर्वोत्पादक परमेश्वर देव के (भागः) भागरूप, अङ्गरूप (स्थ) हो। (अपां शुक्रम्) प्रजाओं की शक्ति और सामार्थ्य, (वर्चः) तथा दीप्ति (अस्मासु) हम अधिकारियों में (धत्त) स्थापित करो, हमें प्रदान करो। (प्रजापतेः धाम्ना) प्रजापति के नाम तथा स्थान द्वारा (अस्मै लोकाय) इस पृथिवीलोक के लिये (सादये) मैं इन्द्र अर्थात् सम्राट् (वः) हे प्रजाओं ! तुम्हें दृढ़ स्थापित करता हूं।
टिप्पणी -
[परमेश्वर ब्रह्माण्ड का शासक होता हुआ पृथिवी का भी शासक है। परन्तु पृथिवीस्थ मनुष्यवर्ग में व्यवस्था के लिये मानुषराजवर्ग भी आवश्यक है। प्रजातन्त्रराज्य में वस्तुतः शासक प्रजाएं होती हैं। अतः ये प्रजाएं ही निजशासन में पारमेश्वरीय शासन के भागरूप या अङ्गरूप होती हैं। प्रजाएं राज्याधिकारियों को चुन कर राज्यव्यवस्था कायम करती हैं, और राज्याधिकारियों को पारमेश्वरीय शासन में अङ्गरूप बनाती हैं। राज्याधिकारियों में मुख्याधिकारी राजा होता है। समग्र पृथिवी के शासन में यह “इन्द्रेन्द्र” होता है, इन्द्रों का भी इन्द्र होता है, सम्राटों का भी सम्राट् होता है। इस के सम्बन्ध में वेद में निम्नलिखित मन्त्र द्वारा निम्नलिखित भावनाएं प्रकट की है। यथा “इन्द्रेन्द्र मनुष्या३: परेहि संह्यज्ञास्थाः वरुणैः संविदानः। स त्वायमह्वत स्वे सधस्थे स देवान् यक्षत् स उ कल्पयाद् विशः।। (अथर्व० ३।४।६)। अर्थात् हे इन्द्रेन्द्र! हे मनुष्य ! तू भूमण्डल के परे तक के प्रदेशों तक भी जाया-आया कर। वरुण अर्थात् प्रजा निर्वाचित माण्डलिक राजाओं द्वारा सम्यक्तया जानकारी को प्राप्त हुआ तू उनके साथ शासन में ऐकमत्य को प्राप्त हो। उस परमेश्वर ने "सधस्थ" अर्थात् निजगद्दी में साथ बैठने के लिये तेरा आह्वान किया है, तू परमेश्वर के साथ राजगद्दी पर बैठ कर, परमेश्वर का प्रतिनिधि बन कर पृथिवी का शासन कर, और विश्वास कर कि ऐसे तेरे शासन में परमेश्वर, राज्यशासन में तेरे सहायक दिव्य राजवर्ग को शासन-यज्ञ के योग्य बना देगा, और तेरी प्रजाओं को सामर्थ्य सम्पन्न कर देगा। राजा लोग यदि यह समझ लें कि शासन की गद्दी पर परमेश्वर भी स्थित है, और हम उसके प्रतिनिधि होकर शासन व्यवस्था के लिये उसके साथ बैठे हुए हैं तो पृथिवी का शासन स्वर्गीयशासन हो जाय। मन्त्र में “वरुणैः” में बहुवचन है, अतः ये मनुष्य है, माना गया वरुण-देवता नहीं। मनुष्या३: में आह्वान में "टि" को प्लुत है। यक्षंतु = यज् + सिप् + लेट् लकार]