अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुभगर्भातिधृतिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
यो व॑ आपो॒ऽपामू॒र्मिर॒प्स्वन्तर्य॑जु॒ष्यो देव॒यज॑नः। इ॒दं तमति॑ सृजामि॒ तं माभ्यव॑निक्षि। तेन॒ तम॒भ्यति॑सृजामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। तं व॑धेयं॒ तं स्तृ॑षीया॒नेन॒ ब्रह्म॑णा॒नेन॒ कर्म॑णा॒नया॑ मे॒न्या ॥
स्वर सहित पद पाठय: । व॒: । आ॒प॒: । अ॒पाम् । ऊ॒र्मि: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य॒जु॒ष्य᳡: । दे॒व॒ऽयज॑न: । इ॒दम् । तम् । अति॑ । सृ॒जा॒मि॒ । तम् । मा । अ॒भि॒ऽअव॑निक्षि । तेन॑ । तम् । अ॒भि॒ऽअति॑सृजाम: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒धे॒य॒म् । तम् । स्तृ॒षी॒य॒ । अ॒नेन॑ । ब्रह्म॑णा । अ॒नेन॑ । कर्म॑णा । अ॒नया॑ । मे॒न्या ॥५.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो व आपोऽपामूर्मिरप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः। इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि। तेन तमभ्यतिसृजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥
स्वर रहित पद पाठय: । व: । आप: । अपाम् । ऊर्मि: । अप्ऽसु । अन्त: । यजुष्य: । देवऽयजन: । इदम् । तम् । अति । सृजामि । तम् । मा । अभिऽअवनिक्षि । तेन । तम् । अभिऽअतिसृजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । वधेयम् । तम् । स्तृषीय । अनेन । ब्रह्मणा । अनेन । कर्मणा । अनया । मेन्या ॥५.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(आपः) हे आप्त प्रजाओं! (वः) तुम्हारा (यः) जो (अपाम्) प्रजाओं सम्बन्धी (ऊर्मिः) लहर है, जोकि (अस्तु अन्तः) तुम्हारे हृदयान्तर्वर्ती जलों में विद्यमान है, (यजुष्यः) यजनीय तथा (देवयजनः) देवों अर्थात साध्यों और ऋषियों द्वारा यजनीय है, (तम्) उसके प्रति (इदम्) इस शरीर या मन को (अति सृजामि) मैं सम्राट् भेंट करता हूं, समर्पित करता हूं, [हे परमेश्वर] (तम् मा) उस मुझ को, (अभि अवनिक्षि) अभिमुख होकर, शुचि कर, पवित्र कर। (तेन) उस शुचि, पवित्र सम्राट् की आज्ञा द्वारा (तम्) उस शत्रुराजा का, (अभि) अभिमुख होकर, (अतिसृजामः) हम सैनिक विनाश करते हैं, वध करते हैं, (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ-प्रतिक्रिया में, (वयम्, द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। अथवा (तम्) उस शत्रुराजा का (वधेयम्) मैं सम्राट् स्वयं वध करूं, (तम्) उस का (स्तृषीय) विनाश करूं, (अनेना ब्रह्मणा) इस मन्त्रोक्त विधि द्वारा, (अनेन कर्मणा) इस [द्वन्द्वयुद्धरूपी], कर्मद्वारा, (अनया मेन्या) इस वज्र द्वारा।
टिप्पणी -
[मन्त्र में "ऊर्मि" द्वारा लहर के रूप में परमेश्वर का वर्णन हुआ है। लहरें समुद्र में उठा करती हैं। इस से हृदय को समुद्र कहा है। इस हृदय- समुद्र में परमेश्वर की स्तुतिरूप में स्तुति-लहरें उठती हैं। इन लहरों में परमेश्वर स्तवनीयरूप में प्रकट हो रहा होता है। अतः वह "ऊर्मि" है। इस सम्बन्ध में यजुर्वेद का मन्त्र विशेष महत्त्व का है। यथा- एता अर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे । घृतस्य धारा अभि चाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्य आसाम् ॥ (एताः) ये स्तुतिवाणियां (शतव्रजाः) सैकड़ों वेगों वाली हुई, (हृद्यात् समुद्रात्) हृदयरूपी समुद्र से (अर्षन्ति) उठती हैं, (रिपुणा) जो कि स्तुतियों के रिपू द्वारा (न अवचक्षे) अवख्याति को प्राप्त नहीं होतीं। (घृतस्य) प्रकाश की (धाराः) धाराओं को (अभिचाकशीमि) मैं संमुख देख रहा हूं, (आसाम्) इन धाराओं के (मध्ये) बीच में (हिरण्ययः) हिरण्यवर्णी (वेतसः) संसारपट का बुनने वाला परमेश्वर प्रकट हो रहा है, घृतस्य=घृ क्षरणदीप्त्योः (जुहोत्यादिः) मन्त्र में "दीप्ति" अर्थ अभिप्रेत है। वेतसः=वेञ् तन्तुसन्ताने, वयति तन्तून् संतनोतीति (उणा० ३।११८)। ये प्रकाशमयी धाराएं भी ऊर्मिरूप हैं, जो कि स्तुति मन्त्रों के जप में प्रकट हो रही होती हैं]।