अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 41
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
ब्राह्म॒णाँ अ॒भ्याव॑र्ते। ते मे॒ द्रवि॑णं यच्छन्तु॒ ते मे॑ ब्राह्मणवर्च॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णान् । अ॒भि॒ऽआव॑र्ते । ते । मे॒ । द्रवि॑णम् । य॒च्छ॒न्तु॒ । ते । मे॒ । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सम् ॥५.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणाँ अभ्यावर्ते। ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणान् । अभिऽआवर्ते । ते । मे । द्रविणम् । यच्छन्तु । ते । मे । ब्राह्मणऽवर्चसम् ॥५.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
(ब्राह्मणान् अभि) ब्राह्मणों की ओर (आवर्ते) मैं आवर्तन करता हूं, उन की शरण में आता हूं। (ते) वे (मे) मुझे (द्रविणम्) ब्रह्मज्ञानरूपी बल और-धन (यच्छन्तु) देवें, (ते) वे (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्राह्मणों की दीप्ति दें।
टिप्पणी -
[सार्वभौमशासक ब्रह्म के ज्ञान और उस की प्राप्ति के लिये ब्राह्मणों की शरण में जाना चाहता है। ब्राह्मण हैं वेदज्ञ तथा ब्रह्मज्ञ व्यक्ति, न कि जन्मतः। ब्रह्म के दो अर्थ होते हैं, (१) वेद और विशेषतया ब्रह्मवेद (अथर्व वेद), तथा जगत् का स्वामी परमेश्वर। ३७-४१ के मन्त्रों में शासकों के लिये आदर्श उपस्थित किया है]।