अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 25
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा पृ॑थि॒वीसं॑शितो॒ऽग्निते॑जाः। पृ॑थि॒वीमनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहं पृ॑थि॒व्यास्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्रम॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । पृ॒थि॒वीऽसं॑शित: । अ॒ग्निऽते॑जा: । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । पृ॒थि॒व्या: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा पृथिवीसंशितोऽग्नितेजाः। पृथिवीमनु वि क्रमेऽहं पृथिव्यास्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । पृथिवीऽसंशित: । अग्निऽतेजा: । पृथिवीम् । अनु । वि । क्रमे । अहम् । पृथिव्या: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः)१ पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (पृथिवीसंशितः) पृथिवी में तेज अर्थात् उग्र, (अग्नितेजाः) तथा अग्निसदृश तेजस्वी तू है। (अहम्) मैं (पृथिवीम् अनु) पृथिवी में (विक्रमे) विक्रम अर्थात् पराक्रम करता हूं, (पृथिव्याः) पृथिवी से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भागरहित करते हैं (यः) जोकि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम्) जिस के साथ (वयम् दिष्मः) हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[विष्णु द्वारा व्यापक परमेश्वर का ग्रहण है, सूर्य का नहीं। क्योंकि सूर्य का वर्णन मन्त्र (३७) में हुआ है। मन्त्र में सार्वभौम-शासक स्वयं अपने आप को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि तू विष्णु के पराक्रम वाला है, अर्थात् जैसे परमेश्वर का पराक्रम पृथिवी पर है, वह निज पराक्रम द्वारा समग्र पृथिवी का शासन न्यायपूर्वक करता है, वैसे तू भी समग्रपृथिवी के प्रजाजनों पर न्यायपूर्वक शासन कर और जो सार्वभौम नियमों के प्रतिकूल चलते हैं उन्हें सपत्न अर्थात् शत्रु जान कर उन की हत्या कर। पृथिवी में उग्ररूप हो कर कठोरता पूर्वक उन्हें अग्नि के समान दग्ध कर, जो कि पृथिवी पर मलिनाचरण वाले हैं। इस "आत्मसंबोधन" के पश्चात् सार्वभौमशासक कहता है कि मैं समग्र पृथिवी में निजपराक्रम किये हुआ हूं। मैं और सार्वभौमप्रजा के अन्य शासक मिल कर, पृथिवी के भोगों से उसे भाग रहित कर देते हैं जोकि प्रजा और हम शासकों के साथ द्वेष करता है, और परिणामरूप में जिसके प्रति हम सब का भी द्वेष हो जाता है। उसे हम जीवित नहीं रहने देते, और उसे प्राण-दण्ड देते हैं। इस प्रकार जो व्यक्ति, राज्य के नियमों के विरुद्ध चलता है, जिन नियमों का निर्माण, प्रजा और शासकों को बहु सम्मति या सर्वसम्मति द्वारा हुआ है, उन का पालन, उग्ररूप में, करवाने का निर्देश मन्त्र में हुआ है। संशित = तेज या उग्र। यथा "सत्यं बृहदृतमुग्रम्" (अथर्व० १२।१) में, ऋतम् उग्रम् = उग्र नियम]। [१. क्रमः = कम + अच् (अर्श आदिभ्योऽच्, अष्टा० ५।२।१२७)। अतः क्रम... =पराक्रम वाला। अथवा हे मेरे पराक्रम ! तु विष्णु के पराक्रम के सदृश या तद्रूप है।]