अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
मि॒त्रावरु॑णयोर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्राव॑रुणयो: । भा॒ग:। स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते: । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रावरुणयोर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥
स्वर रहित पद पाठमित्रावरुणयो: । भाग:। स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते: । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(आपः देवीः) हे दिव्य प्रजाओ ! तुम (मित्रावरुणयोः) मित्र और वरुण के (भागः) भागरूप, अङ्गरूप (स्थ) हो। (अपाम् शुक्रम्) प्रजाओं की शक्ति और सामर्थ्य, (वर्चः) तथा दीप्ति (अस्मासु) हम अधिकारियों में (धत्त) स्थापित करो, हमें प्रदान करो। (प्रजापतेः धाम्ना) प्रजापति के नाम तथा स्थान द्वारा (वः) हे प्रजाओ ! तुम्हें (अस्मै लोकाय) इस पृथिवीलोक के लिये (सादये) मैं इन्द्र अर्थात् सम्राट् दृढ़ स्थापित करता हूं।
टिप्पणी -
[मित्रावरुणयोः = मित्र है वह अधिकारी जो कि विदेशनीति के साथ सम्बन्ध रखता है, और भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के साथ मैत्री स्थापित करता है। यथा "मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व" (अथर्व० २।६।४), अर्थात् हे अग्नि ! [मन्त्र ७] "मित्र अधिकारी" द्वारा मित्रों का धारण करने वाला तु एतदर्थ यत्न करता रह। इसी प्रकार एतदर्थ राजा को भी कहा है "मित्रवर्धन"। (अथर्व० ४।८।२) तथा "मित्रवर्धनः" (अथर्व० ४।८।६)। इस से प्रतीत होता है कि "मित्रराष्ट्रों" को बढ़ाते रहना, यह वैदिक विदेशनीति है, जिसका कि अधिकारी विदेशमन्त्री "मित्र" नामक है। वरुणः – मित्र कार्य सम्बन्धी दूसरा अधिकारी वरुण है, जिस का काम है प्रजा को अवांछित कार्यों से रोके रखना, निवारित करते रहना। इस के अधिकार में राष्ट्रिय गुप्तचर [स्पशाः] रहते हैं (अथर्व० ४।१६।४)। यद्यपि सूक्त ४।१६।४ में वरुण द्वारा परमेश्वर का, और उसके नियमों का, “स्पशः" द्वारा वर्णन हुआ है, तो भी सूक्त में राष्ट्रियप्रबन्ध की भी सूचना वरुण और स्पशः द्वारा अभिप्रेत है। इस दृष्टि से मित्र-वरुण का सहचार (मन्त्र ११) में दर्शाया है। मन्त्रभावना के लिये देखो (मन्त्र ७)]।