अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 44
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - त्रिपदा गायत्रीगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
राज्ञो॒ वरु॑णस्य ब॒न्धोसि॑। सो॒मुमा॑मुष्याय॒णम॒मुष्याः॑ पु॒त्रमन्ने॑ प्रा॒णे ब॑धान ॥
स्वर सहित पद पाठराज्ञ॑: । वरु॑णस्य । ब॒न्ध: । अ॒सि॒ । स: । अ॒मुम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णम् । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रम् । अन्ने॑ । प्रा॒णे । ब॒धा॒न॒ ॥५.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
राज्ञो वरुणस्य बन्धोसि। सोमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमन्ने प्राणे बधान ॥
स्वर रहित पद पाठराज्ञ: । वरुणस्य । बन्ध: । असि । स: । अमुम् । आमुष्यायणम् । अमुष्या: । पुत्रम् । अन्ने । प्राणे । बधान ॥५.४४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 44
भाषार्थ -
(राज्ञः वरुणस्य) वरुण राजा का (बन्धः) बन्धन (असि) तू है। (सः) वह तू (आमुष्यायणम्) उस गोत्र के, (अमुष्याः) उस माता के, (अमुम पुत्रम्) उस पुत्र को (अन्ने) अन्न में, (प्राणे१) और प्राण में (बधान) बान्ध, बन्दीकृत कर।
टिप्पणी -
[वरुण राजा माण्डलिक राजा है, यथा "इन्द्रश्च सम्राट्, वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। जो शासक सार्वभौमशासन या सम्राट् शासन के प्रति अपराधी हो, उसे माण्डलिक राजा के कारागार में बन्द करना चाहिये। मन्त्र में “बन्धोऽसि" द्वारा बन्धन को सम्बोधित किया है। बन्धन या बन्ध का अभिप्राय है "दण्डसंविधान"। परमेश्वररूपी वरुण-राजा और उस के पाशों अर्थात् बन्धनों का वर्णन (अथर्व० ४।१६।१-९) में हुआ है। परन्तु प्रकरणानुसार व्याख्येय मन्त्र में माण्डलिक राजा का वर्णन ही अभिप्रेत है] [१. अग्ने प्राणे (विद्यमाने सति), इन दो के विद्यमान रहते। इन का अभाव न होते हुए।]