अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 46
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
अ॒पो दि॒व्या अ॑चायिषं॒ रसे॑न॒ सम॑पृक्ष्महि। पय॑स्वानग्न॒ आग॑मं॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प: । दि॒व्या: । अ॒चा॒यि॒ष॒म् । रसे॑न । सम् । अ॒पृ॒क्ष्म॒हि॒ । पय॑स्वान् । अ॒ग्ने॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । तम् । मा॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वर्च॑सा ॥५.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो दिव्या अचायिषं रसेन समपृक्ष्महि। पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठअप: । दिव्या: । अचायिषम् । रसेन । सम् । अपृक्ष्महि । पयस्वान् । अग्ने । आ । अगमम् । तम् । मा । सम् । सृज । वर्चसा ॥५.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 46
भाषार्थ -
(दिव्या अपः) द्युलोक सम्बन्धी जल की (अयाचिषम्) मैंने याचना की थी, (रसेन) रस से (समपृक्ष्महि) हम संपृक्त हुए हैं। (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (पयस्वान्) प्रभूत दुग्धवाला (आगमम्) मैं तेरे पास आया हूँ, (तम्, मा) उस मुझ को (वर्चसा) दीप्ति अर्थात् ख्याति से (संसृज) संसर्ग कर, मेरी प्रसिद्धि कर।
टिप्पणी -
[दिव्य जल वर्षा द्वारा प्राप्त होते हैं। ये मीठे होते हैं, खारे नहीं होते। अतः कृषि के लिये उत्तम होते हैं। प्रधानमन्त्री से यह प्रार्थना की गई है। यज्ञ१ विधि द्वारा प्रधानमन्त्री वर्षा कराकर प्रजा को यह जल प्रदान करता है। इस से ओषधियां रसवती होती हैं। गौएं इन्हें खा कर प्रभूत दुग्ध देती हैं- कृषक या भूमिपति प्रधानमन्त्री से कहता है कि मैं प्रभूत दुग्ध से सम्पन्न हुआ आया हूं, मुझे इस निमित्त तू यशस्वी कर। पयस्वान् = भूमार्थे मतुप् प्रत्यय। सात्विक जीवन के लिये दुग्ध और रसों की प्रशंसा वेद में हुई है। यथा “पयः पशूनां रसमोषधीनां बृहस्पतिः सविता मे नियच्छात् (अथर्व० १९। ३१।५)। दिव्याः = दिवि भवाः (अथवा दिव्याः = दिव्य गुण वाले, पार्थिव जल, नदी कुल्या२ कूप आदि के जल) अग्निरग्रणीर्भवति (निरुक्त० ७॥४।१५)] [१. देखो देवादि और शन्तनु के आख्यानसम्बन्धी ऋचा (ऋ० १०।९८।५), तथा निरुक्त २।३।११; समुद्र पद की व्याख्या में निरुक्त २॥३॥१०)। २. अथर्व० २०।१९।७।७; ११।३।१३)। कुल्या= नहर। कुल्या का निर्माण पृथिवी में कृषिकर्म के लिये होता है, इस का जल पृथिवी में ही विलीन हो जाता है, समुद्र तक नहीं पहुंचता। "कौ पृथिव्यां लीयते इति कुल्या"।]