अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 34
सूक्त - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा कृ॒षिसं॑शि॒तोऽन्न॑तेजाः। कृ॒षिमनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहं कृ॒ष्यास्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्रम॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । कृ॒षिऽसं॑शित: । अन्न॑ऽतेजा: । कृ॒षिम् । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । कृ॒ष्या: । तम् । नि: । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा कृषिसंशितोऽन्नतेजाः। कृषिमनु वि क्रमेऽहं कृष्यास्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । कृषिऽसंशित: । अन्नऽतेजा: । कृषिम् । अनु । वि । क्रमे । अहम् । कृष्या: । तम् । नि: । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 34
भाषार्थ -
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है, (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (कृषिसंशितः) कृषिकर्म कराने में तेज अर्थात् उग्र है, (अन्नतेजाः) और अन्न के कारण तू तेजस्वी है। (अहम्) मैं (कृषिम् अनु) कृषिकर्म में (विक्रमे) विक्रम अर्थात् पराक्रम करता हूं, (कृष्याः) कृषिक्रर्म से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भागरहित करते हैं। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिसके साथ (वयम्) हम (द्विष्मः) द्वेष करते हैं, (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी -
[सार्वभौमशासक पृथिवी में कृषिकर्म कराने में उग्र भावना वाला है। फलतः पृथिवी में अन्न का बाहुल्य हो जाता है। अन्न के बाहुल्य होने के कारण उस का तेज बढ़ता है, वह तेजस्वी हो जाता है। जिस राष्ट्र के पास अन्न नहीं और उसे अन्य राष्ट्रों से अन्न मांगना पड़ता है वह भिखमंगा राष्ट्र निस्तेज होता है। इस लिये सार्वभौमशासक कृषिकर्म में अपने पराक्रम को दर्शाता है। वह सपत्न को कृषिकर्म करने से वञ्चित कर देता है, और उस के पास अन्नाभाव हो जाने पर क्षुधा से तड़पता हुआ वह मृत्यु का ग्रास बन जाता है। शेष अभिप्राय मन्त्र (२१) के सदृश]। [विशेष - ३२-३४ मन्त्रों में ओषधि, जल, और अन्न का अभाव वर्णित हुआ है। इन में से प्रत्येक तथा सब से वञ्चित हो जाने के कारण सपत्न की मृत्यु हो जाती है। यह उस के लिये मृत्यु दण्ड है, अतः वह सार्वभौम शासन का सपत्न है, शत्रु है।]