अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 24
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
अ॑रि॒प्रा आपो॒ अप॑ रि॒प्रम॒स्मत्। प्रास्मदेनो॑ दुरि॒तं सु॒प्रती॑काः॒ प्र दुः॒ष्वप्न्यं॒ प्र मलं॑ वहन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒रि॒प्रा: । आप॑: । अप॑ । रि॒प्रम् । अ॒स्मत् । प्र । अ॒स्मत् । एन॑: । दु॒:ऽइ॒तम् । सु॒ऽप्रती॑का: । प्र । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । प्र । मल॑म् । व॒ह॒न्तु॒ ॥५.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अरिप्रा आपो अप रिप्रमस्मत्। प्रास्मदेनो दुरितं सुप्रतीकाः प्र दुःष्वप्न्यं प्र मलं वहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअरिप्रा: । आप: । अप । रिप्रम् । अस्मत् । प्र । अस्मत् । एन: । दु:ऽइतम् । सुऽप्रतीका: । प्र । दु:ऽस्वप्न्यम् । प्र । मलम् । वहन्तु ॥५.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(आपः) शारीरिक जल (अथर्व० १०।२।११) "रस-रक्त" आदि, तथा सप्त प्राण (मन्त्र २३) (अरिप्राः) पापरहित हो गए हैं, अतः (अस्मत्) हम से (रिप्रम्) पाप (अप) अपगत हो गया है। (सुप्रतीकाः) मुख को उत्तम बना देने वाले वे निष्पाप "आपः" (अस्मत्) हमसे (दुरितम्) दुष्परिणामी (एनः) पाप को (प्र वहन्तु) प्रवाहित करदें, और (दुःष्वप्न्यम्) बुरे स्वप्नों के परिणामरुप (मलम्) चैत्त मल को (प्र प्र वहन्दु) प्रवाहित करदें।
टिप्पणी -
[रिप्र का अर्थ है पाप। "रपो रिप्रमिति पापनामनी" (निरक्त ४।३।२१)। शारीरिक रस-रक्त, और पांचज्ञानेन्द्रियों, मन और विद्या के निष्पाप और पवित्र हो जाने पर मनुष्य पवित्र हो जाता है, और उसका चेहरा चमक जाता है, तथा स्वप्न सात्त्विक हो कर बुरे चैत्त मल से विहीन हो जाते हैं। विशेष वक्तव्य- (१) मन्त्र १-२४ में स्थान-स्थान पर "आपः" शब्द का प्रयोग हुआ है, जिस का प्रसिद्ध अर्थ जल है। मन्त्रों में "जल अर्थ" द्वारा मन्त्रों के अर्थ युक्तियुक्त तथा बुद्धिग्राह्य नहीं रहते। वैदिक साहित्य में "आपः" शब्द नाना अर्थों में प्रयुक्त होता है। (१) आपः अर्थात् व्यापक ब्रह्म, [आप्लृ व्याप्तौ] (यजु० ३१।१)। (२) आपः= ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और विद्या (यजु० ३४/।५५)। (३) आपः= रक्त, रुधिर (अथर्व० १०।२।११)। (४) आपः अन्तरिक्षनाम (निघं० १।३)। (५) आपः पदनाम (निघं० ५।३), इत्यादि। अतः इन मन्त्रों की व्याख्या में "आपः" का अर्थ मन्त्राभिप्रायानुसार किया गया हैं, जोकि बुद्धिग्राह्य है। मन्त्र १५-२१ में आध्यात्मिक तत्त्वों का वर्णन भी अभिप्रेत है। "यजुष्यः, देवयजनः" द्वारा परमेश्वर का, "अवनिक्षि" द्वारा शरीर या मन की शुचिता, पवित्रता का, “द्वेष्टि” द्वारा राजसिक और तामसिक मनरूपी शत्रुराजा का (मन्त्र २९); "ब्रह्मणा" द्वारा परब्रह्म का (मन्त्र २१), "कर्मना" द्वारा स्तुति-उपासना रूप कर्म का (मन्त्र २१); "मेन्या" द्वारा ज्ञान-वज्र का (मन्त्र २१), वर्णन भी अभिप्रेत है। इसी प्रकार "भागः" [सेवनीय, भजनीय], ऊर्मिः, वत्सः, वृषभः, हिरण्यगर्भः, पृश्निः तथा दिव्य अश्मा, तथा पापों को भस्म करने वाली यजुष्याः अग्नियां, त्रैहायण-अनृत भाषण न करना, दुरित अंहस्, रिप्रका अपगमन" - आदि का वर्णन भी आध्यात्मिक भावनाओं का सूचक है। राजसिक तामसिक- मन भी शारीरिक जीवन में राजा है, परन्तु है शत्रुरूप राजा। इस का विनाश करना चाहिये, और सात्विक मन का उपार्जन करना चाहिये। तभी प्रजाएं “अरिप्राः" हो सकती हैं। यथा-"मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः”। राजसिक-तामसिक मन बन्ध का कारण है अतः शत्रु है, और सात्त्विकमन मोक्ष का कारण है, अतः मित्र है।